राजस्थान के जैन संतों के बारे में इतना तो जानकर पता लगता ही है कि अधिकांश जैन संत 16 से 17वीं सदी के दौरान हुए और उन्होंने अपनी गुरु-शिष्य परंपरा को सदैव बनाए रखा। ब्रह्म कपूरचंद ने राजस्थान में रहकर खूब साहित्य की रचना की। इसमें उनकी सबसे अधिक विख्यात रचना पार्श्वनाथ रास के रूप में निबद्ध है। जैन धर्म के राजस्थान के दिगंबर जैन संतों पर एक विशेष शृंखला में 38वीं कड़ी में श्रीफल जैन न्यूज के उप संपादक प्रीतम लखवाल का ब्रह्म कपूरचंदजी के बारे में पढ़िए विशेष लेख…..
इंदौर। राजस्थान के जैन संतों ने बहुत सा साहित्य रचा है। यहां कई जैन संत हुए। जिन्होंने अपने यहां की गुरु-शिष्य परंपरा को अक्षुण्ण बनाए रखा। जहां गुरुओं ने अपनी शैली में लिखा, वहीं शिष्यों ने अपनी शैली विकसित की। ब्रह्म कपूरचंद मुनि गुणचंद्र के शिष्य थे। ये 17वीं शताब्दी के अंतिम चरण के विद्वान थे। अब तक इनके पार्श्वनाथ रास एवं कुछ हिंदी पद उपलब्ध हुए हैं। इन्होंने रास के अंत में जो परिचय दिया है। उसमें अपनी गुरु परंपरा के अतिरिक्त आनंदपुर नगर का उल्लेख किया है। जिसके राजा जसवंतसिंह थे तथा जो राठौड़ जाति के शिरोमणि थे। नगर में 36 जाति सुखपूर्वक रहती थीं। उसी नगर में बड़े-बड़े जैन मंदिर थे। उनमें एक भगवान पार्श्वनाथ का मंदिर था। संभवतः उसी मंदिर में बैठकर कवि ने अपने इस रास की रचना की थी। पार्श्वनाथ रास की हस्तलिखित प्रति मालपुरा, जिला टोंक (राजस्थान) के चौधरियों के दिगंबर जैन मंदिर के शास्त्र भंडार में उपलब्ध हुई। यह रचना एक गुटके में लिखी हुई है। जो उसके पत्र 14 से 32 तक पूर्ण होती है। रचना राजस्थानी में निबद्ध है। इसमें 166पद्य हैं। रास की प्रतिलिपि बाई रत्नाई की शिष्या श्राविका पारवती गंगवाल ने संवत 1722 मिति जेठ बुदी 5 को समाप्त की थी। इस रास की रचना संवत 1697 में हुई थी।
रास में भगवान पार्श्वनाथ जी के जीवन का पद्य कथा के रूप वर्णन है। कमठ ने पार्श्वनाथ पर उपसर्ग क्यों किया था। इसका कारण बताने के लिए कवि ने कमठ के पूर्व भव का भी वर्णन कर दिया है। कथा में कोई चमत्कार नहीं है। कवि को उसे अति संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करना था। संभवतः इसलिए उसने किसी घटना का विशेष वर्णन नहीं किया। पार्श्वनाथ के जन्म के समय माता-पिता द्वारा उत्सव किया गया। मनुष्यों ने ही नहीं स्वर्ग से आए हुए देवताओं ने भी जन्मोत्सव मनाया।
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