राजस्थान की धरती जैन संतों के जन्म और उनके धर्म के प्रति किए गए कर्म के लिए जानी जाती है। राजस्थान में सर्वाधिक जैन संतों की लंबी विरासत रही है। इनमें से कई तो उद्भट विद्वान के रूप में ख्यात रहे हैं। भट्टारक सकलचंद्र के शिष्य भ. रत्नचंद्र ने चौबीसी नामक पुस्तक में भगवान तीर्थंकरों का गुणानुवाद किया। आज जैन धर्म के राजस्थान के दिगंबर जैन संतों पर एक विशेष शृंखला में 33वीं कड़ी में श्रीफल जैन न्यूज के उप संपादक प्रीतम लखवाल का भट्टारक रत्नचंद्र के बारे में पढ़िए विशेष लेख…..
इंदौर। राजस्थान के जैन संत: व्यक्तित्व और कृतित्व के आधार पर अब तक हमने बहुत से संतों का परिचय प्राप्त किया है। उनमें से कई ऐसे विद्वान रहे, जिन्होंने अपने नाम और कीर्ति के दम पर राजस्थान ही नहीं गुजरात में भी पहचान कायम की। हालांकि संतों ने देशाटन तो खूब किया, लेकिन इनके माध्यम से सर्वाधिक साहित्य राजस्थान और गुजरात में ही रचा गया। इसी क्रम में भट्टारक रत्नचंद्र (प्रथम) के बारे में संक्षेप में जानते हैं। ये भट्टारक सकलचंद्र के शिष्य थे। इनकी अभी तक एक रचना चौबीसी प्राप्त हुई थी। यह रचना संवत 1676 की है। इसमें 24 तीर्थंकर भगवानों का गुणानुवाद है। अंतिम 25वें पद्य में अपना परिचय दिया हुआ है। इनकी रचना सामान्यतः अच्छी है। इनके द्वारा लिखित अंतिम पद्य इस प्रकार है।
संवत सोल छोत्तरे कवित्त रच्या संघारे,
पंचमीशु शुक्रवारे ज्येष्ठ वदि जान रे।
मूलसंघ गुणचंद जिनेंद्र सकलचंद्र,
भट्टारक रत्नचंद्र बुद्धि गछ भांणरे।
त्रिपुरो पुरो पि राज स्वतो ने तो अभ्रराज,
भामोस्यो मोलखराज त्रिपुरो बखाण रे।
पीछो छाजु ताराचंद, छीतरचंद,
ताउ खेतो देवचंद एहुं की कत्याण रे।
Add Comment