राजस्थान के संत समाचार

राजस्थान के जैन संत 37 भट्टारक महीचंद्र ने रचनाओं में डिंगल भाषा का किया प्रयोग: लवांकुश छप्पय कवि की चर्चित रचना 


राजस्थान जैन संतों के परिचय में उनकी साहित्यिक अभिरुचि खुलकर सामने आई है। हर जैन संत ने अपनी रचना संसार में राजस्थानी और गुजराती भाषा का भरपूर उपयोग किया है। भट्टारक महीचंद्र ने भी अपनी चर्चित लवाकुंश छप्पय में डिंगल भाषा का प्रयोगकर उसे प्रभावोत्पादक बनाया है। जैन धर्म के राजस्थान के दिगंबर जैन संतों पर एक विशेष शृंखला में 37वीं कड़ी में श्रीफल जैन न्यूज के उप संपादक प्रीतम लखवाल का भट्टारक महीचंद्र के बारे में पढ़िए विशेष लेख…..


इंदौर। भट्टारक महीचंद्र नाम के तीन भट्टारक हो चुके हैं। इनमें से प्रथम विशाल कीर्ति के शिष्य थे। जिनकी कितनी ही रचनाएं उपलब्ध होती हैं। दूसरे महीचंद्र भट्टारक वादिचंद्र के शिष्य थे तथा तीसरे भट्टारक सकलकीर्ति के शिष्य थे। लवांकुश छप्पय के कवि भी संभवतः वादिचंद्र के ही शिष्य थे। नेमिनाथ समवशरण विधि उदयपुर के खंडेलवाल मंदिर के शास्त्र भंडार में संग्रहित है। उसमें उन्होंने स्वयं को भट्टारक वादिचंद्र का शिष्य लिखा है। इस रचना के अतिरिक्त उनकी आदिनाथ विनति आदित्य व्रत कथा आदि रचनाएं भी मिलती हैं। लवांकुश छप्पय कवि की सबसे बड़ी रचना है। इसमें छप्पय छंद के 70 पद्य है।जिनमें राम के पुत्र लव एवं कुश की जीवन गाथा का वर्णन है। भाषा राजस्थानी है। जिस पर गुजराती एवं मराठी का प्रभाव है। रचना साहित्यिक है। उसमें घटनाओं का अच्छा वर्णन मिलता है। इसे हम खंड काव्य का रूप दे सकते हैं। कथा राम के लंका विजय और अयोध्या आगमन के बाद प्रारंभ होती है। महीचंद्र की इस रचना को हम राजस्थानी डिंगल भाषा की एक कृति कह सकते हैं।

डिंगल की प्रमुख रचना कृष्ण रुकमणि वेलि के समान है। इसमें भी शब्दों का प्रयोग हुआ है। यद्यपि छप्पय का मुख्य रस शांत रस है, लेकिन आधे से अधिक छंद वीर रस प्रधान हैं। शब्दों को प्रभावशील बनाने के लिए चल्यो, छल्यो, पामया, लाज्या, आव्यो, पाव्यो, पाड्या, चल्यो, नम्यां, उपसम्यां, वोल्या आदि क्रियाओं का प्रयोग हुआ है। तुम हम के स्थान पर तुह्म, अह्म का प्रयोग करना कवि को प्रिय है।

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