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साधना के माध्यम से पापों से मुक्ति पाने का अवसर है अष्टाह्निका पर्व : आठ दिन तक करें ध्यान, योग और स्वाध्याय 


अष्टाह्निका का शाब्दिक अर्थ होता है आठ दिनों का त्योहार। जैन साधक इन 8 दिनों में उपवास, प्रतिक्रमण, पूजन और ध्यान करते हैं। यह पर्व साधना के माध्यम से पापों से मुक्ति पाने और आत्मा की शुद्धि करने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। अष्टाह्निका पर्व आज से शुरू हो रहे हैं। इस विशेष अवसर पर पढ़ें यह आलेख…। प्रस्तुति रेखा संजय जैन ।


अष्टाह्निका पर्व हर साल कार्तिक, फाल्गुन, और आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी से लेकर पूर्णिमा तक बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। यह पर्व विशेष रूप से जैन धर्म में अत्यधिक महत्व रखता है और इसका उद्देश्य श्रद्धा और भक्ति के साथ आत्म-शुद्धि करना होता है।

जम्बूद्वीप का वर्णन:

हम जहां रहते हैं, वह जम्बूद्वीप है, जो इस धरती के सबसे प्रमुख क्षेत्रों में से एक है। इस द्वीप का विस्तार विशाल है और इसे चारों ओर से समुद्रों और पर्वतों से घेर लिया गया है। जम्बूद्वीप के बाद लवणोद समुद्र है, जो इसका एक प्राकृतिक सीमा बनाता है। इसके बाद धातकी खण्ड द्वीप आता है, और फिर कालोदधि समुद्र है।

इसके बाद पुष्करवर द्वीप आता है, जिसके बीच में मानुषोत्तर पर्वत स्थित है। इस पर्वत तक मनुष्यों की गति सीमित होती है। इसे ढाई द्वीप कहा जाता है, क्योंकि यह दो समुद्रों के बीच स्थित एक विशेष पर्वत है। इस पर्वत के पार जाने की शक्ति सामान्य मनुष्यों के पास नहीं होती।

मानुषोत्तर पर्वत के बाद, समुद्रों और द्वीपों का क्रम आगे बढ़ता है:

1. कालोदधि समुद्र के आगे पुष्करवर द्वीप है, जिसके बाद पुष्करवर समुद्र है।

2. इसके बाद वारुणीवर द्वीप आता है, फिर वारुणीवर समुद्र।

3. क्षीरवर द्वीप आता है, और इसके बाद क्षीरवर समुद्र है। इस समुद्र का जल क्षीर (दूध) के समान सफेद और अमृत जैसा होता है।

4. इसके बाद घृतवर द्वीप है, जिसके बाद घृतवर समुद्र है।

5. फिर इक्षुवर द्वीप आता है, और इसके बाद इक्षुवर समुद्र है। इस समुद्र का जल ईख के रस के समान मीठा होता है।

6. अंत में, नन्दीश्वर द्वीप है, जो इस क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण और पवित्र द्वीप है। इसके बाद नन्दीश्वर समुद्र है।

द्वीपों और समुद्रों का विस्तार:

इन द्वीपों और समुद्रों का एक विशिष्ट नियम है — उनका विस्तार दुगना-दुगना होता है। इसका मतलब यह है कि:

– पहले द्वीप से दूसरे समुद्र का विस्तार दुगना होता है।

– दूसरे समुद्र से आगे के द्वीप का विस्तार भी दुगना होता है।

इस प्रकार, इस अद्भुत क्षेत्र में असंख्य द्वीपों और समुद्रों का एक विशाल और दिव्य काव्यात्मक क्रम है, जो जैन धर्म में बहुत महत्व रखता है।

नन्दीश्वर द्वीप और अष्टाह्निका पर्व का धार्मिक महत्व

नन्दीश्वर द्वीप का विवरण जैन धर्म के धार्मिक ग्रंथों में अत्यधिक पवित्रता और दिव्यता के प्रतीक के रूप में मिलता है। इस द्वीप का व्यास १६३ करोड़ योजन है, जो इसके विशाल और महान आकार को दर्शाता है। नन्दीश्वर द्वीप का स्थान जैन धर्म में सर्वोत्तम और अत्यधिक पवित्र माना जाता है। इसके विशेष धार्मिक महत्व को समझने के लिए, इस द्वीप की संरचना और इसके आसपास के स्थानों का अध्ययन करना आवश्यक है।

नन्दीश्वर द्वीप के चारों दिशाओं में वापिकाएं और पर्वत:

नन्दीश्वर द्वीप की चारों दिशाओं में चार प्रमुख वापिकाएं स्थित हैं:

1. पूर्व दिशा में स्थित चार वापिकाएं हैं:

– रम्या,

– सुनन्दा,

– सुरम्या,

– सुसेना।

2. दक्षिण दिशा में स्थित चार वापिकाएं हैं:

– सुमाला,

– विद्युन्माला,

– सुषेणा,

– चन्द्रसेना।

 

3. पश्चिम दिशा में स्थित चार वापिकाएं हैं:

– श्रीदत्ता,

– श्रीसेना,

– श्रीकान्ता,

– श्रीरामा।

 

4. उत्तर दिशा में स्थित चार वापिकाएं हैं:

– कार्माङ्गा,

– कामबाणा,

– सुप्रभा,

– सर्वतोभद्रा।

 

इन 16 वापिकाओं के माध्यम से कुल 16 दधिमुख होते हैं, जो इस दिव्य स्थान की देखरेख करते हैं। प्रत्येक वापिका के कोने में दो रतिकर होते हैं, इस प्रकार कुल ३२ रतिकर होते हैं। इसके अतिरिक्त, नन्दीश्वर द्वीप में 52 पर्वत होते हैं (चार प्रमुख पर्वत चारों दिशाओं में और बाकी पर्वत वापिकाओं से जुड़े होते हैं)। हर पर्वत के शिखर पर एक-एक अकृत्रिम जिनमन्दिर है, और प्रत्येक मन्दिर में 108 अकृत्रिम जिनविम्ब होते हैं। कुल मिलाकर, नन्दीश्वर द्वीप में 52 अकृत्रिम चैत्यालय हैं, जिसमें 5616 जिनबिम्ब होते हैं।

नन्दीश्वर द्वीप पर यात्रा और अष्टाह्निका पर्व:

यह द्वीप केवल दिव्य कल्पवासी इन्द्र और सम्यग्दृष्टि देव के लिए पहुंच रखने वाला है, जो यहां आठ दिन तक रहते हैं और अष्टाह्निका पर्व मनाते हैं। यह पर्व विशेष रूप से उनके लिए होता है जो सम्यग्दृष्टि और ज्ञान के आस्तिक हैं। ये देवता आठ दिन तक यहाँ रहकर भक्तिभाव से पर्व मनाते हैं और सातिशय पुण्य का बन्ध करते हैं। यदि किसी मिथ्यादृष्टि देवता ने उनके साथ यात्रा की हो, तो वह भी सम्यक्त्व ग्रहण करके ही लौटता है।

मानवों की यात्रा की सीमा:

मानवों की गमनशक्ति केवल ढाई द्वीप तक ही होती है। यह क्षेत्र जम्बूद्वीप और इसके आसपास के द्वीपों से लेकर मानुषोत्तर पर्वत तक सीमित है। इसके आगे का मार्ग सामान्य मनुष्यों के लिए असंभव है। इस बात को स्पष्ट करते हुए यह कहा जाता है कि केवल विद्याधर या चारण ऋद्धिधारी मुनि ही इन क्षेत्रों तक पहुंच सकते हैं। यहाँ तक कि तीर्थंकर भी गृहस्थाश्रम में रहते हुए ढाई द्वीप के आगे तक नहीं जा सकते।

तीर्थंकर के कल्याणक समय की विशेषता:

तीर्थंकर के तप कल्याणक के समय, जब वे निर्ग्रन्थ मुनि होते हैं और केशलुंचन करते हैं, तो देवगण उनके केशों को एक विशेष रत्न-पिटारी में भरकर क्षीरसागर में डाल देते हैं। इसके बाद केश क्षीरसागर के पार जाकर कपूर की तरह उड़ जाते हैं, और देवगण वह रत्न-पिटारी क्षीरसागर में ही स्थापित करते हैं। यह घटनाक्रम इस बात को और स्पष्ट करता है कि मानवों के लिए नन्दीश्वर द्वीप तक पहुँचना संभव नहीं है, क्योंकि यह स्थल केवल दिव्य आत्माओं के लिए ही है।

अष्टाह्निका पर्व: श्रद्धा, पूजा और सामाजिक परंपराएं

अष्टाह्निका पर्व जैन धर्म में एक अत्यंत महत्वपूर्ण पर्व है, जो विशेष रूप से श्रद्धा, भक्ति और आत्मनिर्भरता के साथ मनाया जाता है। इस पर्व के दौरान, मनुष्य अपनी शक्ति की लघुता को ध्यान में रखते हुए और अपने आत्मसुधार की भावना से नन्दीश्वर द्वीप, वहाँ स्थित जिनमन्दिरों और जिनविम्बों की कल्पना करके पूजा करता है। हालांकि नन्दीश्वर द्वीप तक पहुंचना असंभव है, लेकिन श्रद्धालु इन दिव्य स्थलों की मानसिक पूजा करते हैं।

इस पर्व के दौरान श्रद्धालु विशेष रूप से व्रत, नियम और संयम का पालन करते हैं। उनकी यह भावना होती है कि इन दिनों उनके द्वारा किए गए कर्मों और साधनाओं से अत्यधिक पुण्य प्राप्त होता है। इन दिनों लोग सिद्धचक्र का पाठ भी करते हैं, जो आत्मा की शुद्धि और आध्यात्मिक उन्नति के लिए महत्वपूर्ण होता है। व्रत, संयम और एकाशन (एक समय का भोजन) आदि का पालन करते हुए, भक्त आत्मा का चिन्तन और साधना करते हैं। यह पर्व उनकी आत्मा की शुद्धि और धर्म के प्रति श्रद्धा को बढ़ाता है।

अष्टाह्निका पर्व की प्राचीन परंपरा

अष्टाह्निका पर्व की परंपरा बहुत प्राचीन है, और इसका उल्लेख हमें जैन साहित्य, विशेष रूप से पद्मचरित में मिलता है। इसके अनुसार, अष्टाह्निका पर्व के दिनों में मन्दिरों को बहुत ही सुंदर तरीके से सजाया जाता था। मन्दिरों में पताकाएं लगाई जाती थीं और जिनालय (जिनमन्दिर) को स्वर्ण, रत्न, चूर्ण और अन्य सामग्री से सुसज्जित किया जाता था। उत्तम द्वारों के माध्यम से मन्दिर और जिनालय को भव्यता प्रदान की जाती थी।

इन दिनों मन्दिरों में विभिन्न प्रकार के मण्डल और वस्त्रों से सजावट होती थी। जिनके कण्ठ में मोतियों की मालाएं लटकती थीं, जो रत्नों की किरणों से सुशोभित होती थीं। मन्दिरों में जिनप्रतिमाओं के अभिषेक के लिए कलशों का आयोजन किया जाता था, और हजारों कलश घर-घर में इकट्ठे किए जाते थे। इन कलशों में भक्त अपनी श्रद्धा और भक्ति को व्यक्त करते थे।

व्रत करनेवाले लोग स्वर्ण, चांदी और मणिरत्न से निर्मित कृत्रिम कमलों आदि से महापूजा करते थे। इसके बाद पूजा के अंत में सभी लोग गन्धोदक (सुगंधित जल) मस्तक पर लगाते थे। इस समय मन्दिरों में उत्तमोत्तम नगाड़े, तुरही, मृदंग, काहल और अन्य वादित्रों से विशाल ध्वनि होती थी, जो एक अत्यंत भव्य और श्रद्धापूर्ण वातावरण उत्पन्न करती थी। कहीं-कहीं पर तो नगरभर में जिनेन्द्र भगवान का रथ भी बड़े धूमधाम से निकाला जाता था।

सामाजिक और धार्मिक वातावरण

अष्टाह्निका पर्व के दौरान नगरों में एक विशेष धार्मिक और सामाजिक वातावरण बनता था। इन दिनों राजा द्वारा जीवों के मारने या शिकार करने का निषेध कर दिया जाता था। यह पर्व अहिंसा और सभी जीवों के प्रति प्रेम और आदर का प्रतीक बन जाता था। अगर किसी युद्ध का माहौल बनता, तो भी इस पर्व के दौरान दोनों पक्षों के लोग युद्ध से विरत रहते थे। यह समय शांति और सामूहिक भक्ति का होता था, जब पूरे नगर में प्रेम, सद्भावना और धार्मिक आस्थाओं का आदान-प्रदान होता था।

अष्टाह्निका व्रत की विधि

आचार्य सिंहनन्दिकृत व्रत-तिथि-निर्णय ग्रन्थ तथा स्व. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्रीकृत विवेचन के अनुसार अष्टाह्निका व्रत की विधि इस प्रकार है:

अष्टाह्निका व्रत कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष में अष्टमी से पूर्णिमा तक किया जाता है। यदि तिथिवृद्धि हो जाए तो एक दिन अधिक करना पड़ता है। व्रत के दिनों में यदि तिथिहास हो जाए तो एक दिन पहले से व्रत करना आवश्यक होता है। व्रत की तीन प्रमुख विधियां हैं: उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्यरूप विधियां। प्रत्येक श्रद्धालु को अपनी शक्ति के अनुसार उपयुक्त विधि का चयन करना चाहिए।

व्रत की प्रारंभिक तैयारी

सप्तमी तिथि से लेकर प्रतिपदा तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना आवश्यक होता है। इस दौरान भूमि पर शयन करना, संचित पदार्थों का त्याग करना, और अन्य व्रत संबंधी नियमों का पालन करना चाहिए। यह समय आत्मशुद्धि और संयम का होता है।

अष्टमी तिथि का महत्व

अष्टमी तिथि को दिन में नन्दीश्वर द्वीप का मण्डल मांडकर अष्टद्रव्यों से पूजा की जाती है। पूजा के बाद नन्दीश्वर व्रत की कथा पढ़नी चाहिए। यह व्रत और उसकी कथा बहुत प्रभावशाली मानी जाती है, और इसके माध्यम से भक्तों को पुण्य की प्राप्ति होती है।

अष्टाह्निका व्रत के प्रभाव

अष्टाह्निका व्रत का अत्यधिक महत्त्व है और इसके प्रभाव से अनेक महान व्यक्तियों को दिव्य सिद्धियाँ प्राप्त हुई हैं। उदाहरण स्वरूप, मैनासुन्दरी ने इस व्रत को करके अपने पति राजा श्रीपाल का कोढ़ दूर किया था। अनन्तवीर्य और अपराजित जैसे लोग इस व्रत के प्रभाव से क्रमशः चक्रवर्ती और चक्रवर्ती के सेनापति बने। इसी व्रत के प्रभाव से जयकुमार भी मनःपर्ययज्ञानी होकर तीर्थंकर ऋषभदेव के गणधर बने, और सुलोचना ने इस व्रत का पालन कर स्वर्ग में महर्द्धिक देव की स्थिति प्राप्त की।

व्रत की कथा

अष्टाह्निका व्रत की कथा बहुत ही प्रेरणादायक है। कथा के अनुसार, जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में अयोध्या नगरी में हरिषेण नामक चक्रवर्ती राज करता था। उसकी पटरानी का नाम गन्धर्वसेना था। एक बार राजा हरिषेण बसन्त ऋतु में नागरिकों और अपनी रानियों के साथ वनक्रीड़ा के लिए गया। वहाँ उसने अरिंजय और अमितञ्जय नामक दो चारणऋद्धिधारी महान् तपस्वी मुनिराजों को देखा। राजा ने श्रद्धा और भक्ति के साथ उनकी वन्दना की और उनसे धर्म का स्वरूप पूछा।

धर्म का स्वरूप सुनकर राजा अत्यधिक प्रसन्न हुआ और उसने मुनिराज से पूछा कि उसने कौन सा ऐसा पुण्य किया है, जिसके कारण इतनी बड़ी विभूति उसे प्राप्त हुई है। मुनिराज ने उत्तर दिया कि इसी अयोध्या नगरी में कुबेरदत्त नामक एक वैश्य और उसकी पत्नी सुन्दरी के तीन पुत्र थे: श्रीवर्मा, जयकीर्ति और जयवर्मा। श्रीवर्मा ने एक दिगम्बर मुनि से नन्दीश्वर व्रत लिया और उसका पालन किया। आयु के अंत में उसने संन्यास लिया और स्वर्ग में महान ऋद्धिवाला देव बना। उसी व्रत के प्रभाव से राजा हरिषेण चक्रवर्ती बना। राजा के पूर्वज जयकीर्ति और जयवर्मा भी नन्दीश्वर व्रत के प्रभाव से स्वर्ग में ऋद्धिधारी देव बने।

मुनिराज के उपदेश से राजा हरिषेण ने पुनः उसी व्रत को विधिपूर्वक पालन किया और संसार, शरीर, और भोगों से विरक्त होकर जिनदीक्षा ली। अंत में उसने घातिया और अघातिया कर्मों का विनाश किया और निर्वाण की प्राप्ति की।

यह कथा अष्टाह्निका व्रत के महान प्रभाव को दर्शाती है, जो भक्तों को पुण्य की प्राप्ति और आत्मा की शुद्धि की दिशा में मार्गदर्शन प्रदान करती है।

 

साभार -जैन पर्व

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