पिछली सदी के महान आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के विचार देव द्रव्य को लेकर बहुत स्पष्ट थे। उनका मानना था कि मंदिर में दिए गए दान की राशि का प्रयोग स्कूल के निर्माण, पाठशाला के निर्माण अथवा छात्रवृत्ति देने के लिए इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। आगम के आधार पर वे कहते थे कि जो भी श्रावक मंदिर की संपत्ति अथवा देव द्रव्य का प्रयोग निजी काम के लिए करेगा, उसका बहुत अहित होता है। पढ़िए वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप जैन का विशेष आलेख..
पिछली सदी के महान आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के विचार देव द्रव्य को लेकर बहुत स्पष्ट थे। उनका मानना था कि मंदिर में दिए गए दान की राशि का प्रयोग स्कूल के निर्माण, पाठशाला के निर्माण अथवा छात्रवृत्ति देने के लिए इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। आगम के आधार पर वे कहते थे कि जो भी श्रावक मंदिर की संपत्ति अथवा देव द्रव्य का प्रयोग निजी काम के लिए करेगा, उसका बहुत अहित होता है। मंदिर का द्रव्य मंदिरों अथवा धर्मशालाओं के जीर्णोद्धार के लिए ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए। धर्मायतनों के संरक्षण से जैन धर्म की प्रभावना में वृद्धि होती है। इसी तरह इन दिनों सामूहिक धार्मिक तीर्थयात्राओं का आयोजन किया जाता है जिसमें अक्सर अधिक मात्रा में द्रव्य इकट्ठा होता है। यात्रा में संपूर्ण खर्च कर चुकने के बाद भी जो शेष राशि संग्रह में रहती है उसे आयोजक निजी खर्च में इस्तेमाल कर लेते हैं। आगम के अनुसार देव द्रव्य का निजी इस्तेमाल करने से घोर पाप का बंध होता है। आचार्य श्री का मानना है कि पाप के फलस्वरूप जो उनका अहित होगा, उससे किसी कमेटी का प्रस्ताव पत्र अथवा किसी पंडित का दिया हुआ प्रमाणपत्र भी बचा नहीं सकेगा। जैन धर्म में कर्मों का फल भोगने में किसी की सिफारिश काम में नहीं आती है। इसीलिए देव द्रव्य का मनमाना उपयोग करने से घोर विपत्ति आती है।
क्या होता है देव द्रव्य
जो धन मंदिर में दान किया जाता है वह देव द्रव्य कहलाता है। उदाहरण के तौर पर श्रावक मंदिर में बोलियां लेते हैं लेकिन तत्काल उसे कमेटी को नहीं देते हैं। तो जो दान बोलियों के रूप में बोला गया है उसे देव द्रव्य मानकर तत्काल अथवा शीघ्रातिशीघ्र मंदिर कमेटी के पास जमा करा देना चाहिए। श्रावक के बोली लेते ही वह धन देव द्रव्य हो जाता है जिसे अपने पास नहीं रखने का नियम है। जो लोग मंदिर में पूजा अथवा किसी भी अनुष्ठान को संपन्न करने के लिए मंदिर की पूजा सामग्री का प्रयोग करते हैं उन्हें तुरंत ही उसकी भरपाई अपनी ओर से कर देनी चाहिए। यदि वे ऐसा नहीं करेंगे तो उन्हें मंदिर के धन का उपयोग करने का दोष लगता है। श्रावकाचारों में इसके इस्तेमाल में सावधानी रखने के निर्देश दिए गए हैं।
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