वर्तमान युग के वर्धमान के नाम से विश्व विख्यात संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी इसी श्रेणी में अपना गौरवपूर्ण स्थान रखते हैं। जैन धर्म के धर्मावलंबियों की लंबी फेहरिस्त है, जिन्होंने आचार्य विद्यासागर जी के अमृत वचनों का रसपान किया है और अपने कर्मों की निर्जरा की है। 6 फरवरी यानि माघ शुक्ल 9 को आचार्यश्री ने अपनी देह का त्याग किया और समाधिस्थ हो गए। उनके गुणानुवाद के रूप में श्रीफल जैन न्यूज की ओर से यह विनम्र प्रस्तुति उप संपादक प्रीतम लखवाल के संयोजन में…
इंदौर। जैन धर्म में अपनी सिद्धता से, अपनी देशनाओं के माध्यम से धर्म को आकाश की उंचाईयों से भी उंचाई पर ले जाने के लिए सतत साधना करने वाले संत बिरले ही हुए हैं। वर्तमान युग के वर्धमान के नाम से विश्व विख्यात संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी इसी श्रेणी में अपना गौरवपूर्ण स्थान रखते हैं। जैन धर्म के धर्मावलंबियों की लंबी फेहरिस्त है, जिन्होंने आचार्य विद्यासागर जी के अमृत वचनों का रसपान किया है और अपने कर्मों की निर्जरा की है। जैन धर्म के विशाल सागर में अनमोल रत्न के रूप में विद्यासागर जी का स्थान सर्वाेपरि इसलिए है कि उन्होंने हमेशा शांत रहकर सौम्यता को धारण कर जैन धर्म के अनुयायियों और भगवंत भक्ति में लीन श्रावक-श्राविकाओं को अमूल्य ज्ञान की धरोहर से समृद्ध किया है। आचार्य विद्यासागर दिगंबर आचार्य थे। आचार्य विद्यासागर जी हिन्दी, अंग्रेजी सहित 8 भाषाओं के ज्ञाता थे। माघ शुक्ल नवमी को आचार्य श्री विद्यासागर जी का प्रथम समाधि दिवस है। इस अवसर पर समूचे भारत वर्ष में इसे महोत्सव के रूप में मनाया जाएगा। इंदौर सहित मप्र के विभिन्न शहरों, नगरों और कस्बों में आचार्यश्री के प्रथम समाधि दिवस पर कार्यक्रम आयोजित होने जा रहे हैं।
आचार्यश्री ने कर्नाटक के बेलगांव जिले के सदलगा में लिया जन्म
आचार्य विद्यासागर जी का जन्म 10 अक्टूबर 1946 को विद्याधर के रूप में कर्नाटक के बेलगांव जिले के सदलगा में शरद पूर्णिमा के दिन हुआ था। उनके पिता श्री मल्लप्पा थे, जो बाद में मुनि मल्लिसागर बने। उनकी माता श्रीमंती थीं, जो बाद में आर्यिका समयमति बनीं। विद्यासागर जी को 30 जून 1968 में अजमेर में 22 वर्ष की आयु में आचार्य ज्ञानसागर ने दीक्षा दी, जो आचार्य शांतिसागर के वंश के थे लेकिन, गुरु परंपरा से द्रोहकर अलग एकल विचरण करते थे। आचार्य विद्यासागर को 22 नवंबर 1972 में आचार्यश्री ज्ञानसागर जी ने आचार्य पद दिया था। उनके भाई, सभी घर के लोग संन्यास ले चुके हैं। उनके भाई अनंतनाथ और शांतिनाथ ने आचार्य विद्यासागर से ही दीक्षा ग्रहण की और मुनिश्री योगसागर और मुनिश्री समयसागर कहलाए। उनके बड़े भाई भी उनसे दीक्षा लेकर मुनिश्री उत्कृष्टसागर जी महाराज कहलाए। इनका जीवन दिगंबर समाज के सर्वजन के लिए अनुकरणीय है।
आचार्यश्री के जीवनत्व और व्यक्तित्व पर हुईं पीएचडी
आचार्यश्री विद्यासागर संस्कृत, प्राकृत सहित विभिन्न आधुनिक भाषाओं हिन्दी, मराठी और कन्नड़ में विशेषज्ञ स्तर का ज्ञान रखते हैं। उन्होंने हिन्दी और संस्कृत के विशाल मात्रा में रचनाएं की हैं। विभिन्न शोधार्थियों ने उनके कार्य का मास्टर्स और डॉक्ट्रेट के लिए अध्ययन किया है। उनके कार्य में निरंजना शतक, भावना शतक, परिषह जाया शतक, सुनीति शतक और शरमाना शतक शामिल हैं। उन्होंने काव्य ‘मूक माटी’ की भी रचना की है। विभिन्न संस्थानों में यह स्नातकोत्तर के हिन्दी पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाता है। आचार्य श्री विद्यासागर कई धार्मिक कार्यों में प्रेरणास्रोत रहे हैं। आचार्य विद्यासागर के शिष्य मुनिश्री क्षमासागर ने उन पर आत्मान्वेषी नामक जीवनी लिखी है। इस पुस्तक का अंग्रेज़ी अनुवाद भारतीय ज्ञानपीठ की ओर से प्रकाशित हो चुका है। मुनि प्रणम्यसागरजी ने उनके जीवन पर ‘अनासक्त महायोगी’ काव्य की रचना की है।
आचार्यश्री की यह रचनाएं है ज्ञानवर्द्धक
हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी आदि में एक दर्जन से अधिक मौलिक रचनाएं प्रकाशित-‘नर्मदा का नरम कंकर’, ‘डूबो मत लगाओ डुबकी’, श्तोता रोता क्यों?, ‘मूक माटी’ आदि काव्य कृतियां; गुरुवाणी, प्रवचन परिजात, प्रवचन प्रमेय आदि प्रवचन संग्रह, आचार्य कुंदकुंद के समयासार, नियमसार, प्रवचनसार और जैन गीता आदि ग्रंथों का पद्य अनुवाद।़ यह रचनाएं जैन धर्म और समाज के लिए अनुपम भेंट के रूप में विख्यात हैं।
आचार्यश्री के शिष्य गण
आचार्य श्री ने 130 मुनिराजों, 172 आर्यिकाओं और 20 ऐलक जी, 14 क्षुल्लकगणों को दीक्षित किया है। मुनिश्री समयसागर जी, मुनिश्री योगसागर जी, मुनिश्री चिन्मयसागर (जंगल वाले बाबा जी), मुनिश्री अभयसागर जी, मुनिश्री क्षमासागर जी, क्षुल्लकश्री ध्यान सागर जी का दीक्षित किया है।
आपका समाधिमरण माघ शुक्ल नवमी को
शरीर की अस्वस्थता के चलते आचार्य जी चंद्रगिरी पर ही विराजमान थे, शरीर मे भयंकर व्याधि ने इन्हे घेर लिया था, इनके शरीर पर पीलिया का प्रभाव देखा गया। पर धैर्य से डॉक्टर और वैद्यों की टीम से दिगंबर आगमनुकूल चर्या से इलाज करवाते रहे लेकिन, कोई असर ना पड़ा। इस प्रकार छत्तीसगढ़ के डोंगरगढ़ स्थित चंद्रगिरी दिगंबर तीर्थ में तीन दिन की संलेखना लेकर आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने 18 फरवरी 2024 को सुबह 2.35 बजे पर अपनी देह का त्याग किया। गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड ने उन्हें ब्रह्मांड के देवता के रूप में सम्मानित किया।
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