मुनिश्री सुधासागर जी महाराज अपनी गहरी आध्यात्मिकता और जैन धर्म के सिद्धांतों के प्रति समर्पण रखते हैं। वे हमेशा अहिंसा, सत्य और तप के महत्व पर जोर देते हैं। अपने दिव्य उपदेशों के जरिये जैन समाज को प्रेरित भी करते हैं। कटनी में विराजित मुनिश्री सुधासागर जी महाराज ने मंगलवार को धर्मसभा में जो प्रवचन दिए हैं। उनकी बानगी राजीव सिंघई की इस खबर में पढ़िए…
हर कार्य का निमित्त अलग-अलग है
कटनी। मुनिश्री सुधासागर जी ने यहां धर्मसभा में श्रावक-श्राविकाओं के बीच अपने प्रवचनों के माध्यम से आत्म संयम, समर्पण और सत्य के प्रति निष्ठावान बनने की प्रेरणा दी। उन्होंने कहा कि कोई कार्य हुआ है तो उसमें कारण जरूर है तो ऐसी स्थिति में हमें कारण को पकड़ना होगा। अब सावधानी कहां रखना है? गुरु की और धर्मात्मा बनने की जरूरत क्यों पड़ी? भगवान के आलंबन की, स्वाध्याय की, मुनि बनने की जरूरत क्यों पड़ी? कभी भी हो तुम बिना निमित्त के कोई कार्य कर ही नहीं सकते, निमित्त मिलेगा तभी तुम्हारा कार्य होगा और हर कार्य का निमित्त अलग-अलग है। जितने कार्य हैं उतने निमित्त हैं और जितने निमित्त हैं उतने उपादान हैं। जो-जो निमित्त हैं, वे-वे उपादान हैं और जो-जो उपादान हैं वे किसी न किसी के निमित्त हैं, इनकी संख्या कभी घटेगी नहीं, बढ़ेगी नहीं। जीव, पुद्गल जितने हैं, उतने ही रहेंगे।
तुमने निमित्त को चाहा है इसलिए बंधक हो
इतने से में हीं धर्म और अधर्म है-निमित्त को तुम चाह रहे हो या निमित्त तुम्हें चाह रहा है। निमित्त को तुम चाह रहे हो तो तुम पराधीन हो, असमर्थ हो, तुम संसारी हो तुम अपराधी हो क्योंकि, तुम निमित्त चाह रहे हो। अच्छे निमित्त को चाहोगे तो पुण्य बंध होगा और बुरे निमित्त को चाहोगे तो पाप बंध लेकिन, बंध तो होगा। तुमने निमित्त को चाहा है इसलिए बंधक हो, तुम स्वार्थी हो, दूसरे से अपना कार्य करना चाहते हो।
व्यापार करने में जो हिंसा होती है वह उद्योगी हिंसा
दो पापी मिलकर के पाप करते हैं उसकी पाप की शक्ति कम होती है, वो उसको मारने आया था तो उसने मार दिया और तुमने उसको मार दिया, पाप कम लगेगा, इसको हमारे यहाँ कहते है विरोधी हिंसा। वह तुम्हे ठग रहा था तुमने उसको ठग लिया, वह तुम्हारा बुरा विचार रहा था, तुमने उसके प्रति बुरा विचार लिया, ये सब चीजें गृहस्थी में संसार के संबंध में चलती है। विरोधी हिंसा, विरोधी झूठ, विरोधी चोरी, विरोधी कुशील, विरोधी परिग्रह सबके साथ विरोधी लगाना। वह तुम्हें लूटने चाह रहा था, तुम उसे लूट लो, विरोधी हिंसा चलेगी। एक होती है उद्योगी हिंसा-व्यापार करने में जो हिंसा होती है, जैसे खेती है, भट्टी जला रहे हैं या खान खोद रहे हैं तो ये उद्योगी हिंसा है, इसमें भी ज्यादा पाप नहीं। एक होती है आरंभी हिंसा मकान बना रहे हैं, कपड़े धो रहे हैं, इस आरंभ हिंसा में इतना ज्यादा पाप का बंध नहीं कि जीव नरक निगोद चला जाए।
शिकार करने को पाप कहा
अब कौन सी हिंसा पाप नहीं करना है। जिसके लिए अपन को सावधान रहना है। अब गुरु की जरूरत कहां पड़ी-संकल्पी हिंसा मत करना। जो हमारे लिए नहीं मार रहा है, हमारे लिए नुकसान नहीं पहुंचा रहा है, उसको नुकसान पहुंचाने का विचार नहीं करना, ये है नरक गति का कारण, ये है निधत्त निकाचित कर्मों के बंध का कारण। जो हमारे संबंध में बुरा सोचता ही नहीं है, हम उसके संबंध में बुरा सोच रहे हैं। जो हमारी हिंसा नहीं कर रहा है, हम उसको मार रहे हैं, इसलिए तो शिकार करने को पाप कहा। उससे झूठ मत बोलना जो तुमसे कभी झूठ नहीं बोल रहा है, उसके यहां चोरी मत करना, जो चोरी नहीं करता है, पसीने की कमाई है उसकी। जो कभी नहीं ठगता, कभी उसको मत ठगना।
संकल्प हिंसा के दो रूप है
जो हमें नुकसान नहीं पहुंचा रहा है कभी उसको नुकसान मत पहुंचाना। दूसरा जो जगत के लिए पूज्य है, आदर्श है, हमारे उपकारी है, जिन्होंने पाप को छोड़ दिया है। उस व्यक्ति के साथ कभी मारने का भाव नहीं करना, यह सबसे निकृष्ट कार्य है। जैसे भगवान, गुरु इनके साथ बुरा करना, यह निधत्त निकाचित कर्म है, कोई माफीनामा नहीं। अब आपके घर में माता पिता हैं, उनके संबंध में कभी बुरा मत सोचना, उनके प्रति कभी हिंसा का भाव मत रखना, उनको कभी दुखी करने का भाव मत करना। उन्होंने तुम्हारे साथ पक्षपात किया हैं लेकिन, वे उपकारी है, उपकारी के प्रति कभी बुरा भाव मत लाना।
सारी दुनिया उन्हें बुलाना चाहती थी
क्यों जलाए जाते हैं रावण के पुतले क्योंकि, रावण ने उसके प्रति भाव बिगाड़ा, जिसने संसार में किसी के प्रति बुरा भाव नहीं किया, जिसने स्वप्न में भी किसी पर पुरुष का स्मरण तक नहीं किया, अग्नि भी जिसे जलाने में समर्थ नहीं है। उसके प्रति तुम्हारे परिणाम बिगड़े, ये गलती मत करना। गुरु महाराज किसी को नहीं चाहते थे दुनिया उन्हें चाहती थी, वे किसी को नहीं देखते थे, दुनिया उन्हें देखती थी। वह किसी को साथ नहीं रखते थे, दुनिया उनके साथ रहती थी। वे किसी से नहीं बोलते थे, सारी दुनिया उनसे बोलती थी। वे कहीं नहीं जाना चाहते थे लेकिन, सारी दुनिया उन्हें बुलाना चाहती थी।
सामने वाले का कार्य हो रहा है और खुशी हो रही है यह है परोपकार
जिस जिस कार्य में निमित्त तुम्हें चाहता है, समझना तुम अब महान बनने की कगार पर चले गए। वह चीज सब दान में आ जाती है, जिसमें स्वयं का कार्य नहीं होता है, सामने वाले का कार्य हो रहा है और खुशी हो रही है उसका नाम है परोपकार। आचार्य ज्ञान सागर महाराज ने आचार्य विद्यासागर नहीं बनाये, उन्होंने साक्षात कुन्दकुन्द देव बनाये, आचार्य कुंदकुंद की प्रतिलिपि बनाई और नाम आचार्य विद्यासागर रख दिया। पहले आचार्यश्री मुनि बने, फिर आचार्यश्री आचार्य बनें, अब आचार्यश्री कलयुग के भगवान बनें। आज आचार्य भगवन को देखकर एकदम मुख से निकलता है। आचार्य भगवन, ये आचार्य का विशेषण नहीं है, ये पूज्य आचार्य विद्यासागर महाराज का विशेषण है।
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