राजस्थान के जैन संत, उनकी वाणी, उनकी लेखनी, उनका साहित्य इतना प्रभावशाली है कि पढ़ने वाला भावविभोर हुए बिना नहीं रहता। राजस्थान के संतों की परंपरा में आचार्यश्री नरेंद्र कीर्ति जी का भी विशिष्ट स्थान है। इन्होंने आग्रह पर भी रचनाकर्म कर साहित्य लेखन में योगदान दिया। जैन धर्म के राजस्थान के दिगंबर जैन संतों पर एक विशेष शृंखला में 35वीं कड़ी में श्रीफल जैन न्यूज के उप संपादक प्रीतम लखवाल का आचार्य श्री नरेंद्र कीर्ति के बारे में पढ़िए विशेष लेख…..
इंदौर। राजस्थान के जैन संत, उनकी वाणी, उनकी लेखनी, उनका साहित्य सभी कुछ इतना प्रभावशाली रहा है कि पढ़ने वाला भावविभोर हुए बिना नहीं रहता। राजस्थान के संतों की परंपरा में आचार्यश्री नरेंद्र कीर्ति जी का भी विशिष्ट स्थान है। इन्होंने आग्रह पर भी रचनाकर्म कर साहित्य लेखन में योगदान दिया है। राजस्थानी धरती पर जैन संतों का प्रभाव 17वीं सदी में भी खूब था। कालांतर में कई और संतों का आगमन हुआ। जिन्होंने अपने संदेशों, उपदेशों से जैन धर्म की ध्वजा को फहराए रखा। इसी क्रम में आचार्यश्री नरेंद्र कीर्ति के बारे में जानते हैं। यह संक्षिप्त जानकारी है। आचार्यश्री नरेंद्र कीर्ति 17वीं सदी के संत थे। भट्टारक वादिभूषण एवं सकल भूषण दोनों संतों के ये शिष्य थे और दोनों की ही इन पर विशेष कृपा थी। एक बार वादिभूषण के प्रिय शिष्य ब्रह्म नेमिदास ने जब इनसे ‘सगर प्रबंध’ लिखने की प्रार्थना की तो इन्होंने उनकी इच्छा के अनुसार ‘सगर प्रबंध’ कृति को निबद्ध किया। प्रबंध का रचनाकाल 1646 आसोज सुदी दशमी है। यह कवि की एक अच्छी रचना है। आचार्य श्री नरेंद्र कीर्ति की ही दूसरी रचना ‘तीर्थंकर चौबीसना छप्पय’ है। इसमें कवि ने अपने नामोल्लेख के अतिरिक्त कोई परिचय नहीं दिया है। दोनों की कृतियां उदयपुर के शास्त्र भंडारों में संग्रहित है।
आचार्य श्री नरेंद्रकीर्ति की रचना…
तेह भवन माहि रह्या चौमास, महा महोत्सव पूगी आस।
श्री वादिभूषण देशनां सुधा पान, कीरति शुभमना।
शिष्य ब्रह्म नेमिदास तणी विनय प्रार्थना देखी धणी।
सूरि नरेंद्र कीरति शुभ रूप, सागर प्रबंध रचिं रसकूप।
मूलसंघ मंडन मुनिराय, कलिकालिं जेगणधर पाय।
सुमतिकीरति गछपति अवदीत, तस गुरु बोधव जग विख्यात।
सकल भूषण सूरीश्वर जेह, कलि माहि, जंगम तीरथ तेह।
ते दोए गुरु पद कंजम न धरि, नरेंद्र कीरति शुभ रचना करी।
संवत सोलाछितालिं सार, आसोज सुदि दशमी बुधवार।
सगर प्रबंध रच्यो मनरंग, चिररू नंदो जा सायर गंग।
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