राजस्थान की धरती पर जैन संतों ने तत्समय जो हिन्दी साहित्य के माध्यम से धर्म प्रभावना, प्रभु भक्ति के साथ गुरु भक्ति का संदेश दिया है। उनमें से एक संत आचार्यश्री चंद्रकीर्ति जी ने अपने अधिकांश पद्यों में गुरु वंदना को अधिक प्राथमिकता दी है। उन्होंने गुरु के साथ तो राजस्थान और गुजरात में विहार किया ही बल्कि स्वयं भी अलग से वे इन प्रांतों में विहार कर अपनी तप, साधना और साहित्य सृजन में तल्लीन रहे। जैन धर्म के राजस्थान के दिगंबर जैन संतों पर एक विशेष शृंखला में 15वीं कड़ी में श्रीफल जैन न्यूज के उप संपादक प्रीतम लखवाल का आचार्य श्री चंद्रकीर्ति जी के बारे में पढ़िए विशेष लेख…..
इंदौर। राजस्थान के जैन संतों के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है। यहां हम आज आचार्य श्री चंद्रकीर्ति के बारे में जानते हैं। उन्होंने अपने गुरु भट्टारक रत्नकीर्ति जी से दीक्षा ली थी। भट्टारक श्री रत्नकीर्ति ने साहित्य निर्माण का जो वातावरण बनाया था तथा अपने शिष्य-प्रशिष्यों को इस ओर कार्य करने के लिए प्रोत्साहित किया था। इसी के फलस्वरूप ब्रह्म जयसागर, कुमुदचंद्रजी, चंद्रकीर्ति जी, संयमसागर जी, गणेश और धर्म सागर जैसे प्रसिद्ध संत साहित्य रचना की ओर प्रवृत्त हुए। आचार्यश्री चंद्रकीर्ति भट्टारक रत्नकीर्ति के प्रिय शिष्यों में से थे। ये मेधावी और योग्य शिष्य थे। अपने गुरु के हर कार्यों में सहयोग देते थे। चंद्रकीर्ति के गुजरात एवं राजस्थान प्रदेश मुख्य क्षेत्र थे। कभी-कभी ये अपने गुरु के साथ और कभी स्वतंत्र रूप से इन प्रदेशों में विहार करते थे। वैसे बारडोली, भड़ौच, डूंगरपुर, सागवाड़ा आदि नगर इनके साहित्य निर्माण के स्थान थे। अब तक इनकी सोलहकारण रास, जयकुमाराख्यान, चारित्र-चुनड़ी, चौरासी लाख जीवजोनि विनती रचनाओं के अतिरिक्त इनके कुछ हिन्दी पद भी उपलब्ध हैं।
आचार्यश्री चंद्रकीर्ति के सोलहकारण रास रचना के बारे में
यह कवि की लघु कृति है। इसमें पोड़षकारण व्रत का महात्म्य बताया गया है। 46 पद्यों वाले इस रास में राग-गौडो देशी, दूहा, राग देशाख, त्रोटक, चाल राग धन्यासी आदि विभिन्न छंदों का प्रयोग हुआ है। कवि ने रचनाकाल का उल्लेख नहीं किया है, लेकिन रचना स्थान भड़ौच का अवश्य प्रयोग किया गया है। भड़ौच में भगवान शांतिनाथ जी का मंदिर था। वहीं इस रचना का समाप्ति स्थान था। रास के अंत में कवि ने अपना अपने पूर्व गुरुओं का स्मरण किया है।
जयसागर आख्यान को संवत 1655 में समाप्त किया
जयसागर आख्यान को कवि ने संवत 1655 में समाप्त किया था। इसे यदि अंतिम रचना भी माना जाए तो उसका संवत 1660 तक का निश्चित होता है। इसके अलावा कवि ने अपने गुरु के रूप में केवल रत्नकीर्ति का ही उल्लेख किया है। जबकि 1660 तक तो रत्नकीर्ति के बाद भट्टारक कुमुदचंद्रजी हो गए थे। इसलिए यह भी तय सा है कि कवि ने रत्नकीर्ति से ही दीक्षा ली थी और उनकी समाधिमरण के बाद वे संघ से अलग रहने लगे थे। ऐसे समय में कवि का समय 1600 से 1660 तक का माना जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
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