राजस्थान के संत समाचार

राजस्थान के जैन संत 13 भट्टारक श्री अभयचंद्र आध्यात्मिक जादूगर बन गए: काव्य वैभव और सौष्ठव प्रयुक्त होने की अपेक्षा प्रचार का लक्ष्य अधिक था


राजस्थान के जैन संतों ने जहां अपनी साधुता से जन-जन में आध्यात्मिक चेतना से जनजागरण किया। वहीं उनकी साहित्य साधना ने हिन्दी साहित्य को उस समय खूब समृद्ध किया। संतों का साहित्य के प्रति समर्पण के कारण जैन धर्म को आगे बढ़ाने में सफलता मिली। जैन धर्म के राजस्थान के दिगंबर जैन संतों पर एक विशेष शृंखला में 13वीं कड़ी में श्रीफल जैन न्यूज के उप संपादक प्रीतम लखवाल का भट्टारक श्री अभयचंद्रजी के बारे में पढ़िए विशेष लेख…..


इंदौर। अभयचंद्र नाम के दो भट्टारक हुए हैं। ‘प्रथम अभयचंद्र’ भट्टारक श्री लक्ष्मीचंद्र के शिष्य थे, जिन्होंने एक स्वतंत्र भट्टारक संस्था को जन्म दिया। उनका समय विक्रम की 16वीं शताब्दी का द्वितीय चरण था। दूसरे अभयचंद्र इन्हीं की परंपरा में होने वाले भट्टारक कुमुदचंद्र के शिष्य थे। यहां इन्हीं दूसरे अभयचंद्र जी का परिचय दिया जा रहा है। अभयचंद्र भट्टारक थे और कुमुदचंद्र की समाधि के बाद भट्टारक गादी पर बैठे थे। यद्यपि अभयचंद्र का गुजरात से काफी निकट का संबंध था, लेकिन राजस्थान में भी इनका बराबर विहार होता था और ये गांव-गांव एवं नगर-नगर में भ्रमण करके जनता से सीधा संपर्क बनाए रखते थे। अभयचंद्र अपने गुरु के योग्यतम शिष्य थे। उन्होंने भट्टारक श्री रत्नकीर्ति एवं भट्टारक श्री कुमुदचंद्र जी का काल देखा था। उनकी साहित्य साधना भी देखी थी। इसलिए जब ये प्रमुख संत बने तो इन्होंने भी उसी परंपरा को बनाए रखा। संवत 1685 की फाल्गुन सुदी 11 सोमवार के दिन बारडोली नगर में इनका पट्टाभिषेक हुआ। इस पद पर संवत 1721 तक रहे।

संस्कृत और प्राकृत ग्रंथों का उच्च अध्ययन किया

अभयचंद्र का जन्म संवत 1640 के लगभग हूंबड वंश में हुआ था। इनके पिता का नाम श्रीपाल और माता का नाम कोडमदे था। बचपन से ही बालक अभयचंद्र को साधुओं की मंडली में रहने का अवसर मिला। हेम जी कुंअर जी इनके भाई थे। ये संपन्न घराने के थे। युवावस्था के पहले ही इन्होंने पांचों महाव्रतों का पालन प्रारंभ कर दिया था। इसी के साथ इन्होंने संस्कृत और प्राकृत ग्रंथों का उच्चाध्ययन किया। न्यायशास्त्र में पारंगतता प्राप्त की। अलंकार शास्त्र एवं नाटकों का गहरा अध्ययन किया। अच्छे वक्ता तो ये प्रारंभ से ही थे। विद्वता होने से सोने पर सुहागा सा समन्वय हो गया। जब उन्होंने युवावस्था में पदार्पण किया तो त्याग एवं तपस्या के प्रभाव से इनकी मुखाकृति स्वयंमेव आकर्षक बन गई। जनता के लिए ये आध्यात्मिक जादूगर बन गए। इनके सैकड़ों शिष्य थे। जो स्थान-स्थान पर ज्ञान दान किया करते थे।

अभयचंद्र जी के प्रमुख शिष्य

इनके प्रमुख शिष्यों में गणेश, दामोदर, धर्मसागर, देवजी व रामदेव के नाम प्रमुख हैं। जितनी अधिक प्रशंसा शिष्यों ने इनकी की है। अन्य भट्टारकों की उतनी प्रशंसा देखने में नहीं आती है। एक बार भट्टारक अभयचंद्र का सूरत नगर में आगमन हुआ। वह संवत 1706 का समय था। सूरत नगर निवासियों ने उस समय इनका भारी स्वागत किया। घर-घर उत्सव किया। कुंकुम छिड़का गया। अंग पूजा का आयोजन किया गया।

भट्टारक श्री अभयचंद प्रचारक के साथ-साथ साहित्य निर्माता भी

भट्टारक श्री अभयचंद प्रचारक के साथ-साथ साहित्य निर्माता भी थे। यद्यपि अभी तक उनकी अधिक रचनाएं उपलब्ध नहीं हो सकी हैं, लेकिन फिर भी उन प्राप्त रचनाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि उनकी कोई बड़ी रचना भी मिलनी चाहिए। कवि ने लघु गीत अधिक लिखे हैं। इसका प्रमुख कारण तत्कालीन साहित्यिक वातावरण ही था।

इन कृतियों के माध्यम से फैली कीर्ति

अब तक इनकी ये कृतियां उपलब्ध हो चुकी हैं। वासुपूज्यनी धमाल, चंदागीत, सूखड़ी, चतुर्विशति तीर्थंकर लक्षण गीत, पद्मावती गीत, नेमिश्वरस्तु ज्ञान कल्याणक गीत, आदिश्वरनाथनु पंच कल्याणक गीत, बलभद्र गीत आदि हैं। ये सभी रचनाएं लघु कृतियां हैं। यद्यपि काव्यतत्व, शैली एवं भाषा की दृष्टि से ये उच्चस्तरीय रचनाएं नहीं हैं, लेकिन तत्कालीन समय जनता की मांग पर ये रचनाएं लिखी गईं थी। इसलिए इनमें कवि का काव्य वैभव और सौष्ठव प्रयुक्त होने की अपेक्षा प्रचार का लक्ष्य अधिक था। भाषा की दृष्टि से भी इनका अध्ययन आवश्यक है। राजस्थानी भाषा की ये रचनाएं हैं तथा उसका प्रयोग कवि ने अत्यधिक सावधानी से किया है। गुजराती भाषा का प्रयोग तो स्वभावतः ही हो गया है। इस प्रकार कविवर अभयचंद्र ने अपनी लघु रचनाओं के माध्यम से हिन्दी साहित्य की जो महती सेवा की थी। वह सदा स्मरणीय रहेगी ।

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