दोहे भारतीय साहित्य की एक महत्वपूर्ण विधा हैं, जो संक्षिप्त और सटीक रूप में गहरी बातें कहने के लिए प्रसिद्ध हैं। दोहे में केवल दो पंक्तियां होती हैं, लेकिन इन पंक्तियों में निहित अर्थ और संदेश अत्यंत गहरे होते हैं। एक दोहा छोटा सा होता है, लेकिन उसमें जीवन की बड़ी-बड़ी बातें समाहित होती हैं। यह संक्षिप्तता के साथ गहरे विचारों को व्यक्त करने का एक अद्भुत तरीका है। दोहों का रहस्य कॉलम की 50वीं कड़ी में पढ़ें मंजू अजमेरा का लेख…
“जब लग नाता जगत का तब लग भक्ति न होय।
नाता तोड़े हरि भजे भगत कहावे सोए॥”
इस दोहे का अर्थ यह है कि जब तक मनुष्य संसार के मोह, रिश्तों और सांसारिक बंधनों में उलझा रहेगा, तब तक वह सच्चे अर्थों में भक्ति नहीं कर सकता।
मनुष्य अपनी पूरी ऊर्जा परिवार, समाज, धन-संपत्ति, और सांसारिक चीजों में ही लगा देता है। इससे उसका चित्त कभी स्थिर नहीं रहता, और वह ईश्वर को सच्चे मन से स्मरण नहीं कर पाता। लेकिन जब वह इन बंधनों को त्यागकर अपने मन को ईश्वर की ओर केंद्रित करता है, तभी वह वास्तविक भक्त बन सकता है।
इसका यह अर्थ नहीं है कि हमें परिवार और समाज को छोड़कर जंगल में चले जाना चाहिए। बल्कि इसका संकेत यह है कि हमें संसार में रहकर भी आसक्ति (attachment) को छोड़ना चाहिए। जब हम संसार में रहते हुए भी ईश्वर को प्राथमिकता देते हैं, तभी सच्ची भक्ति संभव होती है।
“जब लग नाता जगत का तब लग भक्ति न होय” का तात्पर्य यह है कि जब तक मनुष्य का हृदय सांसारिक इच्छाओं और माया में फंसा हुआ है, तब तक उसकी भक्ति केवल एक औपचारिकता होती है।
“नाता तोड़े हरि भजे भगत कहावे सोए” का अर्थ है कि जब व्यक्ति ईश्वर को ही अपना सर्वस्व मानकर सांसारिक बंधनों से ऊपर उठ जाता है, तभी वह सच्चा भक्त कहलाने योग्य होता है। इसका मतलब यह नहीं कि हमें परिवार और रिश्तों को छोड़ देना चाहिए, बल्कि यह कि हमें उन पर अंधा मोह नहीं करना चाहिए। हमारी भक्ति निष्काम और निस्वार्थ होनी चाहिए, तभी वह प्रभावी होगी।
यह दोहा हमें “सच्ची भक्ति” और “मायाजाल” के बीच का अंतर स्पष्ट रूप से बताता है।
जब तक मनुष्य को संसार में अपना कुछ लग रहा है, तब तक उसकी भक्ति अधूरी है। क्योंकि वह भगवान को प्राथमिकता देने के बजाय, सांसारिक चीजों को ज्यादा महत्व देता है।
लेकिन जब व्यक्ति भीतर से जागरूक होकर संसार के मोह को छोड़कर केवल ईश्वर को समर्पित हो जाता है, तब उसे सच्चे भक्त की उपाधि मिलती है।
यह संसार नश्वर है, और इसमें सभी रिश्ते अस्थायी हैं। केवल ईश्वर और आत्मा का संबंध शाश्वत है। जब व्यक्ति इस सत्य को समझ लेता है, तब वह मोक्ष और आत्म-साक्षात्कार की ओर बढ़ता है।
कबीर जी इस दोहे के माध्यम से हमें यह सिखाना चाहते हैं कि भक्ति और माया एक साथ नहीं रह सकते। जब तक मनुष्य सांसारिक इच्छाओं, लोभ, और मोह में फंसा रहेगा, तब तक उसकी भक्ति अधूरी रहेगी। लेकिन जब वह असली वैराग्य को अपनाकर भगवान में लीन हो जाएगा, तभी वह सच्चा भक्त कहलाएगा।
तुम संसार में रहो, लेकिन संसार तुममें न रहे। जब यह अवस्था आ जाती है, तभी सच्ची भक्ति प्रकट होती है।
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