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दोहों का रहस्य -46 भीड़ का होना किसी की सत्यता का प्रमाण नहीं : सही और गलत को पहचानने के लिए विवेक और आत्मचिंतन आवश्यक


दोहे भारतीय साहित्य की एक महत्वपूर्ण विधा हैं, जो संक्षिप्त और सटीक रूप में गहरी बातें कहने के लिए प्रसिद्ध हैं। दोहे में केवल दो पंक्तियां होती हैं, लेकिन इन पंक्तियों में निहित अर्थ और संदेश अत्यंत गहरे होते हैं। एक दोहा छोटा सा होता है, लेकिन उसमें जीवन की बड़ी-बड़ी बातें समाहित होती हैं। यह संक्षिप्तता के साथ गहरे विचारों को व्यक्त करने का एक अद्भुत तरीका है। दोहों का रहस्य कॉलम की 46वीं कड़ी में पढ़ें मंजू अजमेरा का लेख…


छोटी आंख विवेक की, लखे ना संत असंत।

जाके संग दस बीस है, तो को नाम महंत।


इस दोहे में कबीरदास जी समाज में व्याप्त भ्रम, दिखावे और अज्ञानता पर कटाक्ष कर रहे हैं। वे बताते हैं कि जिनकी विवेक बुद्धि संकीर्ण होती है, वे सच्चे संत और ढोंगी संत में अंतर नहीं कर पाते। ऐसे लोग केवल बाहरी दिखावे को देखकर निर्णय लेते हैं और जिसे भी भीड़ घेरकर चलती है, उसे ही महंत या बड़ा संत मान लेते हैं।

किसी की वास्तविकता को परखने के लिए केवल बाहरी दिखावे पर भरोसा नहीं करना चाहिए। अक्सर लोग भीड़ देखकर प्रभावित हो जाते हैं और सोचते हैं कि जिसके पीछे अनुयायियों की बड़ी संख्या हो, वही सच्चा महात्मा या ज्ञानी है। लेकिन वास्तविकता यह है कि भीड़ हमेशा सत्य का अनुसरण नहीं करती, बल्कि भ्रम और लोकप्रियता के पीछे भागती है। अतः हमें विवेक से विचार करना चाहिए और सच्चे गुणों को पहचानना चाहिए।

समाज में व्याप्त अंधभक्ति और चकाचौंध के प्रति यह एक चेतावनी है। आज भी लोग बिना सोचे-समझे उन व्यक्तियों के पीछे चलते हैं, जो धन, शक्ति या प्रतिष्ठा से घिरे होते हैं। लेकिन कबीर यह कहना चाहते हैं कि भीड़ का होना किसी की सत्यता का प्रमाण नहीं है। हमें अपनी बुद्धि और विवेक का उपयोग करना चाहिए और सच्चे संत और ढोंगियों के बीच फर्क समझना चाहिए।

कबीरदास जी इस दोहे के माध्यम से हमें सिखाना चाहते हैं कि केवल भीड़ और बाहरी प्रभाव देखकर किसी को महात्मा या बड़ा संत न मानें। सही और गलत को पहचानने के लिए विवेक और आत्मचिंतन आवश्यक है। हमें सच्चे संत की पहचान उसके आचरण, विचार और ज्ञान से करनी चाहिए, न कि उसके पीछे चलने वाले अनुयायियों की संख्या से।

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