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दोहों का रहस्य -43 मनुष्य का मूल्य उसकी चेतना, ज्ञान और कर्मों में निहित है : कर्महीन व्यक्ति भटकता रहता है जीवन में 


दोहे भारतीय साहित्य की एक महत्वपूर्ण विधा हैं, जो संक्षिप्त और सटीक रूप में गहरी बातें कहने के लिए प्रसिद्ध हैं। दोहे में केवल दो पंक्तियां होती हैं, लेकिन इन पंक्तियों में निहित अर्थ और संदेश अत्यंत गहरे होते हैं। एक दोहा छोटा सा होता है, लेकिन उसमें जीवन की बड़ी-बड़ी बातें समाहित होती हैं। यह संक्षिप्तता के साथ गहरे विचारों को व्यक्त करने का एक अद्भुत तरीका है। दोहों का रहस्य कॉलम की 43वीं कड़ी में पढ़ें मंजू अजमेरा का लेख…


वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल

बिना कर्म का मानव फेर कांवाडोल।


कबीर दास जी के इस दोहे में जीवन का गहरा सत्य छिपा हुआ है। उन्होंने यहां वस्तु और मानव जीवन के बीच अंतर को उजागर किया है। इस दोहे में यह बताया गया है कि किसी भी वस्तु की कीमत होती है, लेकिन वह केवल एक निर्जीव पदार्थ होती है, जिसका उपयोग किया जाता है और फिर त्याग दिया जाता है। वस्तुएं खरीदी और बेची जा सकती हैं, लेकिन मनुष्य केवल एक वस्तु नहीं है।

“वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल” – यहां कबीर यह कहना चाहते हैं कि वस्तुओं का एक बाजार होता है, जहां वे खरीदी और बेची जा सकती हैं। लेकिन मनुष्य मात्र एक वस्तु नहीं है, जिसे खरीदा या बेचा जा सके। मनुष्य का मूल्य उसकी चेतना, ज्ञान और कर्मों में निहित है, जो उसे मूल्यवान बनाते हैं। मनुष्य की आत्मा अमूल्य सागर के समान है, जिसका कोई मोल नहीं लगाया जा सकता।

“बिना कर्म का मानव फेर कांवाडोल” – इस पंक्ति में कबीर यह कहते हैं कि यदि मनुष्य निष्क्रिय है, कर्महीन है, तो वह भटकता रहता है। जिस तरह समुद्र की लहरें बिना किसी स्थायित्व के इधर-उधर बहती रहती हैं, वैसे ही एक कर्महीन व्यक्ति भी जीवन में अस्थिर रहता है। उसकी दिशा तय नहीं होती, वह मानसिक और आध्यात्मिक रूप से भ्रमित रहता है।

कबीर का यह दोहा हमें यह समझाने का प्रयास करता है कि मनुष्य की असली पहचान उसके कर्मों में है, न कि उसकी बाहरी संपत्ति या रूप में। कर्महीन व्यक्ति जीवन में भटकता रहता है, जबकि सत्कर्म करने वाला व्यक्ति अपने जीवन को सार्थक बनाता है। इसलिए हमें सदैव अच्छे कर्म करने चाहिए और अपने जीवन को मूल्यवान बनाना चाहिए।

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