समाचार

आज्ञा में चलने से जीवन बनता है धन्य: श्री ज्ञानमति माताजी ने बताई आचार्यश्री शांतिसागर जी के तप-साधना क्रिया


आर्यिका श्री ज्ञानमति माताजी ने मार्ग प्रभावना भावना के बारे में बताया कि मार्ग यानि मोक्ष मार्ग की प्रभावना। ज्ञान द्वारा तप द्वारा, जिन पूजा आदि द्वारा धर्म की प्रभावना की जाती है। लोक में उसकी प्रसिद्धि होती है। आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज ने अपने जीवन में मार्ग प्रभावना की है। दक्षिण से उत्तर तक विहार करके धर्म प्रभावना की है। पढ़िए कोल्हापुर से अभिषेक अशोक पाटील की यह प्रस्तुति…


कोल्हापुर। आज से 69 साल पहले कुंथलगिरी पर्वत पर सन 1955 में आचार्य श्री शांतिसागर महाराज जी की अंतिम सल्लेखना शुरु थी। वह अंतर में मग्न थे। सन् 1955 में आचार्यश्री कुंथलगिरि में कुलभूषण-देशभूषण जी की प्रतिमा के समक्ष 12 वर्ष की सल्लेखना ली थी। ज्ञानमती माताजी उस समय क्षुल्लिका अवस्था में वीरमति माताजी थी, वह आचार्य श्री शांतिसागर महाराज जी की सल्लेखना के समय वहां गई थी। भादों शुक्ल दूज को आचार्यश्री ने अपने शरीर का परित्याग करके उपपाद शैय्या पर जाकर वैक्रियिक शरीर धारण किया। आज लगभग 1600 साधु विहार कर रहे हैं। यह सब आचार्य श्री शांतिसागर महाराज जी का ही उपकार है। भगवान आदिनाथ ने युग की आदि में जीवन जीने की कला सिखाया। आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज ने 20वीं शताब्दी के अंदर मुनि परंपरा को जीवंत किया। उसी प्रकार गुरु आज्ञा का पालन करते हुए ज्ञानमती माताजी जो कि प्रथम बालब्रह्मचारिणी, इन्होंने आर्यिका परंपरा को जीवंत किया। प्रथमाचार्य शांतिसागर जी महाराज, वे इस युग के लिए वरदान थे। आर्यिका श्री ज्ञानमति माताजी ने मार्ग प्रभावना भावना के बारे में बताया कि मार्ग यानि मोक्ष मार्ग की प्रभावना। ज्ञान द्वारा तप द्वारा, जिन पूजा आदि द्वारा धर्म की प्रभावना की जाती है। लोक में उसकी प्रसिद्धि होती है। आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज ने अपने जीवन में मार्ग प्रभावना की है। दक्षिण से उत्तर तक विहार करके धर्म प्रभावना की है।

जिनागम के प्रति मेरूसम श्रद्धा

आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज कहते थे कि जिनागम के अनुसार विचार बनाना चाहिए। अपनी धारणा के अनुसार आगम को नहीं बदलना चाहिए। उनकी आगम की श्रद्धा मेरु की तरह अविचलित थी। सागर के समान वही अथाह थी। आगम के विरुद्ध वे एक भी बात न कहते थे, न करते थे। उनका कहना था कि शास्त्र जलधि है, जीव मछली है, उसमें जीव जितना घूमे और अवगाहना करे उतना ही थोड़ा है। उनके आदेश के अनुसार जब धवला, जयधवला, महाबंध (महाधवल) सिद्धांत ग्रंथ ताम्रपत्र में उत्कीर्ण हो गए तब महाराज ने शास्त्र भंडार के व्यवस्थापकों से कहा था कि ये शास्त्र हमारे प्राण हैं। हमारे प्राण इस शरीर में नहीं हैं, जिनेंद्र भगवान की वाणी ही हमारा प्राण हैं।

तीन बार सिंह-निष्क्रिडित नाम का तप करने वाले आचार्य श्री शांतिसागर 

आचार्य श्री शांतिसागर महाराज जी का मुनि जीवन 35 वर्ष का था। जिसमें से आचार्य श्री ने 9 हजार 338 निर्जल उपवास किए हैं जो की लगभग 27 वर्षाें में होते हैं और लगभग 3 बार सिंह-निष्क्रिडित नाम का तप किया। 1 आहार 1 उपवास, 1 आहार 2 उपवास, 1 आहार 3 उपवास और ये क्रम 9 उपवास तक चलता फिर 1 आहार 9 उपवास, 1 आहार 8 उपवास ऐसे पूरा क्रम होता है। आचार्य विद्यासागर जी जब विद्याधर थे। तब उन्होंने वो आहार देखा था। आचार्य विद्यासागर जी बताते हैं कि लगता नहीं था की शांतिसागर जी इतने उपवास के बाद आहार कर रहे है।

आचार्यश्री शांतिसागर जी के पास अद्भुत स्वाध्याय प्रवृत्ति 

आचार्य श्री शांतिसागर महाराज जी प्रतिदिन कम से कम 40 या 50 पृष्ठों का स्वाध्याय करते थे। धवलादि सिद्धांत ग्रंथों का बहुत सुंदर अभ्यास महाराज ने किया था। अपनी असाधारण स्मृति तथा तर्कणा के बल पर वे अनेक शंकाओं को उत्पन्न करके उनका सुंदर समाधान करते थे।

गंभीर उपसर्ग जिन पर आचार्य श्री ने प्राप्त की विजय 

आचार्यश्री के अलौकिक आत्मध्यान निमग्नता की अनेकों अनमोल घटनाएं हैं। कोगनोली में महाराज एक निर्जन स्थान में बनी हुई गुफा में रात्रि के समय ध्यान में लीन थे। नगर का एक पागल महाराज के पास गुफा में गया। उसने महाराज के पास रोटी मांगी- बाबा, रोटी दो। भूख लगी है। बाबा के पास क्या था, वे तो मौन ध्यान कर रहे थे। बाबा को शांत देख पागल का दिमाग उत्तेजित हो गया। उसके हाथ में एक लकड़ी थी जिसके अग्रभाग में नोकदार लोहे का कीला लगा था, उससे बैलों को मारने का काम लिया जाता था। पागल इस लकड़ी से महाराज के शरीर को मारने लगा। लोहे की नोक पीठ, छाती आदि में चुभ गयी। सारा शरीर रक्त से सन गया। बहुत देर तक उपद्रव करने के बाद पागल वहां से चला गया। सबेरा होने पर लोगों ने देखा तो बहुत दुःखी हुए। भक्तों ने उनकी वैयावृत्ति की किन्तु महाराज चुपचाप थे। एक समय गुफा में ध्यान में लीन थे तब महाराज की पुरुष इंद्रिय पर एक मकोड़ा चिपट गया। वह मांस खाता था और रक्त की धारा बहती थी किंतु, महाराज का ध्यान स्थिर था। ध्यान हटने पर संघस्थ ब्र. बंडू ने उस मकोड़े को अलग किया।

चीटियां भी ध्यान में नहीं डाल सकीं बाधा

एक अवसर पर गुफा में रखे दीपक का कुछ तेल दैवयोग से बिखर गया और असंख्य चीटियां वहां आ गईं। महाराज के शरीर पर भी चीढ़ियां चढ़ गईं और काटती रहीं। प्रातःकाल लोगों ने आकर यह उपसर्ग दूर किया। महाराज का यह नियम था कि प्रत्येक अष्टमी व चतुर्दशी को उपवास का नियम लेकर मौन रहकर वे आत्मा का ध्यान किया करते थे। वहां गिरि-कंदराओं में अनेक बार व्याघ्र आदि हिंसक जंतु उनके पास आ जाया करते थे और कुछ समय पश्चात् उपद्रव किए बगैर चले जाते थे।

विषधर सर्प शरीर पर दो घंटे लिपटा रहा

एक बार कोगनोली की गुफा में लगभग 8 फीट का विषधर सर्प उनके शरीर में दो घंटे तक लिपटा रहा। वह सर्प भीषण होने के साथ अधिक वजनदार भी था। विहार करते हुए भी उनके मार्ग में अनेक हिंसक पशु आए और फिर महाराज के तप के प्रभाव से चले गए। शिखरजी के रास्ते में 100-150 बैलों का झुंड मिला। चार मस्त बैल भागकर महाराज की तरफ आए और उनके मुख को देखकर शांत होकर प्रणाम करके वहां से चले गए। महाराज कहते थे कि भय किसका किया जाए। जब तक कोई पूर्व का बैरी न हो तब तक वह नहीं सताता है। महाराज ने कहा था-‘‘हम बीच बाजार में भी बैठकर आत्मध्यान कर सकते हैं। एक बार मध्याह्न का समय था कोन्नूर की गुफा में महाराज श्री सामायिक कर रहे थे। एक उड़ने वाला सर्प आया और महाराज की जंघाओं के बीच छिप गया। वह लगभग तीन घंटे तक उपद्रव करता रहा लेकिन, आचार्य श्री ने अपनी स्थिर मुद्रा को भंग नहीं किया। जो उनकी साधना को दर्शाता है।

आप को यह कंटेंट कैसा लगा अपनी प्रतिक्रिया जरूर दे।
+1
2
+1
0
+1
0

About the author

Shreephal Jain News

Add Comment

Click here to post a comment

× श्रीफल ग्रुप से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें