सूत्र वाक्य छोटे होते हैं लेकिन उनका निर्माण बडे़ अनुभवों के आधार पर होता है। महापुरुषों ने जो कुछ भी कहा, सूत्रात्मक ही कहा। सूत्र वाक्य ही सूक्तियां कहलाती हैं। चिन्तन से सूत्रों का अर्थ खुलता है। धर्म के अन्तिम संचालक, तीर्थ के प्रवर्तक, चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी हुए हैं। यद्यपि वह मुख्यतया आत्मज्ञ थे, अपने निजानन्द में लीन रहते थे, फिर भी वह सर्वज्ञ थे। मुनि श्री प्रणम्य सागर जी महाराज की पुस्तक खोजो मत पाओ व अन्य ग्रंथों के माध्यम से श्रीफल जैन न्यूज Life Management नाम से नया कॉलम शुरू कर रहा है। इसके छठे भाग में पढ़ें श्रीफल जैन न्यूज के रिपोर्टर संजय एम तराणेकर की विशेष रिपोर्ट….
छठा सूत्र
या तो मान लो या मना लो
बच्चों को प्यार व इशारों से समझाएं
जीवन में बहुत ऐसे प्रसंग आते हैं जब हम अपनी जिद पर होते हैं। कभी-कभी यह स्थिति बच्चों के साथ भी बन जाती है। बच्चे भी अपनी जिद पर होते हैं और माता-पिता भी। विशेष रूप से मां बच्चों का ख्याल रखती है इसलिए यह परिस्थिति मां के साथ ज्यादा बनती है। बच्चों को बचपन से ही इस तरह या करें कि वह आपकी बात आपके इशारे से समझ जाए। बच्चों को उंगली दिखाकर भी डांटना न पड़े। यदि बच्चे प्यार से आपकी बात समझने लगेंगे तो आपको जीवनभर सुख मिलेगा। कहने से ही हमारी बात समाप्त हो जाए, मारने पीटने से नहीं।
बच्चों को पीटना अपनी किस्मत ठोकना है
बच्चों को यदि पिटने की आदत पड़ जाती है तो फिर वे आगे चलकर और बेशरम हो जाते हैं। बच्चे के मन में माता-पिता के प्रति डर, घृणा का भाव पैदा हो जाता है। आप भी यदि बच्चे को पीटकर मारकर सिखाना चाहते हैं तो दिन-प्रतिदिन अपनी चिंता, उत्तेजना, पीटने के तरीके सोचने में ही आपका समय व्यर्थ होगा। हाथ कुछ भी नहीं आएगा। बच्चों के कोमल हृदय पर इस तरह तीव्र आघात उन्हें घर से भाग जाने, आत्महत्या करने और हीन भावना से ग्रसित करने में बहुत बड़ा कारण बन जाता है। इसलिए अभिभावक और शिक्षक दोनों ही बच्चों से प्रेमपूर्ण तरीके अपनाकर अपना बनाकर उन्हें सिखाएं।
असमंजस में न रहें
इसके अलावा कुछ ऐसे भी अवसर आते हैं जो बड़ों के बीच घटित होते हैं। यह अवसर पति-पत्नी, भाई-भाई, पिता-पुत्र, मां-बेटी, सास-बहू, ऑफीसर (Officer) वर्कर (Worker), गुरु-शिष्य, दो व्यापारी आदि किसी के साथ भी आ जाते हैं। यह वह अवसर होते हैं जब हम परिस्थिति से समझौता करने का साहस नहीं जुटा पाते। हम किसी की बात को शिरोधार्य नहीं कर पाते हैं। ऐसी स्थिति में हम अक्सर तनाव में जीते हैं। यह वह समय होता है, जब हम किसी बात को मानकर भी परेशानी में होते हैं और न मानकर भी। ऐसे समय में हमारे एक ओर तो अपनी जिंदगी, अपने स्वप्न और अपना स्वाभिमान होता है तो दूसरी ओर अपनी जिंदगी किसी के लिए समर्पित करना होता है, अपने स्वप्नों को भूलना होता है और अपने स्वाभिमान को अभिमान समझकर छोड़ना होता है।
भावुकता में निर्णय न लें
कभी-कभी हम क्या निर्णय लें यह आप स्वयं ही समझ नहीं पाते हैं। आपके सही तरीके हैं या तो आप सामने वाले की बात मान लो फिर उसे अपने ढंग से मना लो। यदि आपके अंदर अदम्य है और आत्मविश्वास पर भरोसा है तो आप चुनौती भी दे सकते है आप सफल हो, लेकिन आपको उसे भूलना होगा। जिन्दगी के नए मोड़ से नए रास्ते पर अकेले चलने का साहस आपको कहीं भीतर से तोड़ न दे, यह ध्यान रखना होगा। भावुकता में न हो। अपनी भावुकता को अपना साहस समझने की गलती कर बैठना। यदि आपके पास धैर्य है तो आप मान लें या मना लें, आप हर स्थिति में सफल हो सकते हैं। थोडे़ से समझौते में यदि बड़ी समस्या का हल दिख रहा हो तो आप पहले मान लें का विकल्प चुनें।
अभिमान को परे रखें
रावण यदि अपनी पत्नी मंदोदरी और भाई विभीषण आदि की बात मान लेता तो उसका इतनी जल्दी अंत नहीं होता और भीषण नरसंहार भी नहीं होता। उसके पास युद्ध को विराम देने का विकल्प था। सीता को वापस करना उसे मंजूर नहीं था, यही साहस उसका दुस्साहस था और इसी दुस्साहस से उसकी मृत्यु हुई।
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