जैन धर्म के 6ठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ का मोक्ष कल्याणक 16 फरवरी को मनाया जाएगा। इस दिन जिनालयों में श्रद्धा भक्ति से महामस्तकाभिषेक, शांतिधारा, पूजन, अर्चन सहित अन्य विधान मंत्रोच्चार के साथ किए जाएंगे। भगवान पद्मप्रभ का मोक्ष फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी के दिन हुआ था। भगवान पद्मप्रभ के दिव्य संदेशों में अहिंसा पर अधिक प्रेरणा दी गई है। उनकी देशनाएं जैन धर्म की मार्गप्रदर्शक साबित हुई हैं और आगे भी हो रही हैं। आज हम भगवान पदमप्रभ के मोक्ष कल्याणक के अवसर पर उनकी यह जानकारी संजोकर लाए हैं। श्रीफल जैन न्यूज के उप संपादक प्रीतम लखवाल के संयोजन में पढ़िए यह कड़ी…
इंदौर। जैन धर्म और समाज के पूज्य और आराध्य 6ठें तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभु का मोक्ष कल्याणक 16 फरवरी को फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी के दिन है। लंबे समय तक धर्म का प्रचार करते रहे। भगवान पद्मप्रभ भारतवर्ष में घूमते रहे और सम्मेद शिखर पर पहुंचेे। यहां पर फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को उन्हें निर्वाण प्राप्त हुआ। वैसे ग्रंथों में ज्ञात है कि भगवान को माघ कृष्ण 6 को गर्भ कल्याणक मनाया जाता है। इस दिन वे अपनी माता रानी सुसीमादेवी के गर्भ में अवतरित हुए थे। इससे पूर्व उनकी माता को स्वप्न हुआ था, जिसमें उन्होंने स्वप्न लाल कमल के फूलों से सजी सेज देखी थी। सुबह उन्होंने सोने के लिए लाल पद्म की सेज की इच्छा जताई। उसकी पूर्ति देवताओं ने की। भगवान पद्मप्रभु का जन्म कार्तिक कृष्ण 12 को हुआ था। भगवान पदमप्रभु के मोक्ष कल्याणक पर जिनालयों में भगवान के अभिषेक, शांतिधारा, पंचामृत अभिषेक सहित अन्य विधियों से पूजन होगा। मप्र में इंदौर, आलिराजपुर सहित हर जगह पर उनके दिव्य मंदिरों में भक्ति और आराधना की जाती है। पद्मप्रभ, जिन्हें पद्मप्रभु के नाम से भी पूजा जाता है। वर्तमान युग के छठे तीर्थंकर थे।
कौशांबी में हुआ था भगवान पद्मप्रभु जन्म
जैन परंपरा में ऐसा माना जाता है कि पद्मप्रभ का जन्म इक्ष्वाकु वंश के राजा श्रीधर और रानी सुसीमादेवी के घर कौशांबी में हुआ था। जो उत्तरप्रदेश में है। पद्मप्रभ का संस्कृत में अर्थ है ‘लाल कमल जैसा चमकीला’। ऐसी किंवदंती है कि जब वे गर्भ में थे, तब उनकी मां को लाल कमल पद्म के एक सेज(बिस्तर) की चाहत थी। भगवान पद्मप्रभु का जन्म कार्तिक कृष्ण 12 को हुआ था। फाल्गुन महीने के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी के दिन भगवान पद्मप्रभ अन्य 308 संतों के साथ मुक्त हुए और सम्मेद शिखर (पर्वत) पर मोक्ष प्राप्त किया।
भगवान पद्मप्रभु का पूर्व जन्म
महाराज अपराजित वत्स देश के पूर्व विदेह क्षेत्र के धातकी राज्य में स्थित सुसीमा नगर पर शासन करते थे। वे सरल और धार्मिक व्यक्ति थे। अरिहंत के प्रवचन सुनकर उन्हें वैराग्य हुआ और उन्होंने आचार्य पिहिताश्रवा से दीक्षा ली। दीर्घकालीन साधना के फलस्वरूप उन्हें तीर्थंकर नाम, गोत्र और कर्म की प्राप्ति हुई। अपनी आयु पूर्ण करने पर उन्होंने ग्रैवेयक लोक में देव रूप में पुनर्जन्म लिया। देवताओं के राज्य से अपराजित नामक प्राणी कौशांबी के राजा श्रीधर की पत्नी रानी सुसीमा के गर्भ में उतरा। एक दिन रानी सुसीमा को कमल के फूलों से बने बिस्तर पर सोने की इच्छा हुई। चूंकि यह एक गर्भवती मां की इच्छा थी, इसलिए देवताओं ने इसकी पूर्ति के लिए व्यवस्था की। कार्तिक महीने की कृष्ण द्वादशी (पतझड़ के पखवाड़े का बारहवां दिन) को रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया।
रंग लाल, कमल जैसा नाम रखा पद्मप्रभ
नवजात शिशु की त्वचा कमल के फूलों जैसी कोमल गुलाबी चमक वाली थी। राजा ने उसका नाम ‘पद्मप्रभ’ (अर्थात कमल जैसी चमक वाला) एक लंबे और सफल शासन के बाद जब उन्होंने अपने त्रिविध ज्ञान से जाना कि सही समय आ गया है तो वे तपस्वी बन गए। 6 महीने की साधना के बाद चौत्र मास की पूर्णिमा के दिन उन्हें एक वट वृक्ष के नीचे केवल ज्ञान हुआ।
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