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आचार्य विद्यासागर समाधि स्मृति दिवस पर विशेष : ज्ञान, आध्यात्मिकता और मानवता के महान प्रतीक थे आचार्य श्री


आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का जीवन हमें यह सिखाता है कि जीवन को एक उद्देश्य के साथ जीना चाहिए। उन्होंने हमें यह समझाया कि धर्म और समाज के प्रति हमारी जिम्मेदारी केवल आस्थाएँ तक सीमित नहीं है, बल्कि हमें इन आस्थाओं को अपने जीवन में लागू करना भी चाहिए। उनका योगदान न केवल धार्मिक दृष्टि से, बल्कि समाज के हर वर्ग के लिए प्रेरणादायक है। उनके विचार और कार्य आज भी हमें सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं। उनके प्रथम समाधि दिवस पर पढ़िए डॉक्टर जैनेंद्र जैन का विशेष आलेख…


आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज श्रमण संस्कृति के महामहिम संत, समाज और राष्ट्र के हित चिंतक थे। उन्होंने न केवल आत्मकल्याण के लिए साधना की, बल्कि लोककल्याण की भावना से भी समृद्ध जीवन जीते। वह जैन श्रमणों में ज्येष्ठ एवं सर्वश्रेष्ठ संत थे, जिनके प्रति जैन और जैनेत्तर समाज के सभी वर्गों के नागरिकों के साथ-साथ भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, रक्षामंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, कई राज्यों के मुख्यमंत्री, राज्यपाल, राजनेता और शासन-प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारी भी अगाध श्रद्धा रखते थे।

 

आचार्य श्री के बारे में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि वह स्वयं में इतिहास थे। उनका व्यक्तित्व इतना आकर्षक था कि उनकी कार्यशैली और चिंतन में वसुधैव कुटुंबकम और विश्व कल्याण की भावना समाहित थी। उन्होंने पांच दशकों से अधिक समय तक देश के विभिन्न शहरों में बिहार या चातुर्मास करते हुए अपने त्याग, तपस्या, ज्ञान साधना और करुणा से न केवल जैन धर्म को आलोकित किया, बल्कि श्रमण संस्कृति (जिन शासन) को भी गौरवान्वित किया।

 

आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने अपने 56 वर्षों के साधना काल में अनेकों मील के पत्थर स्थापित किए। धर्म, समाज, राष्ट्र, राष्ट्रभाषा, साहित्य, गौरक्षा, स्त्री शिक्षा, चिकित्सा, और हथकरघा आदि क्षेत्रों में उनका जो योगदान रहा है, वह राष्ट्र और समाज के लिए अनमोल रहेगा। उनका योगदान हमें सदियों तक याद रहेगा।

 

आचार्य श्री की प्रेरणा से पांच नवीन तीर्थों की स्थापना हुई, 12 पाषाण जिनालयों का निर्माण हुआ और पांच तीर्थों का जीर्णोद्धार किया गया। कुंडलपुर तीर्थ पर स्थित बड़े बाबा के विशाल, ऐतिहासिक और सुंदर मंदिर की पुनर्स्थापना इसका ताजा उदाहरण है। इसके अलावा, आचार्य श्री की प्रेरणा और आशीर्वाद से देशभर में शताधिक गौशालाओं की स्थापना हुई। स्त्री शिक्षा हेतु धर्म और संस्कारों से समृद्ध गुरुकुल पैटर्न पर इंदौर, जबलपुर, रामटेक, सागर, डोंगरगढ़ जैसे शहरों में प्रतिभास्थली (आवासीय कन्या विद्यालय) की स्थापना की गई।

 

शुद्ध सूत और वस्त्र निर्माण के लिए कई शहरों में हथकरघा उद्योग की स्थापना की गई। पीड़ित मानवता की सेवा के लिए सागर में भाग्योदय हॉस्पिटल और रिसर्च सेंटर और जबलपुर में पूर्णायु (आयुर्वेदिक हॉस्पिटल एवं अनुसंधान केंद्र) की स्थापना आचार्य श्री की प्रेरणा और आशीर्वाद का ही फल है। आचार्य श्री ने 450 से अधिक मुनि एवं आर्यिका को दीक्षा देकर श्रमण परंपरा को वृद्धिगत किया। फलस्वरूप, इस पंचम काल में भी हमें जगह-जगह मुनियों और आर्यिकाओं के दर्शन, सांनिध्य और आशीर्वाद मिल रहे हैं।

 

आचार्य श्री का श्रमण संस्कृति के उन्नयन और अहिंसा की स्थापना में जो योगदान है, वह भविष्य में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा और उनकी स्मृति को सदैव जीवित रखेगा। इन सभी उल्लेखित सर्वहितेषी कार्यों के दृष्टिगत आचार्य श्री के योगदान को देखते हुए, भारत सरकार द्वारा आचार्य श्री को समाधि उपरांत भारत रत्न अलंकरण से सम्मानित किया जाना चाहिए, यह एक कृतज्ञता की भावना होगी।

 

आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का जन्म 10 अक्टूबर 1946 को कर्नाटक के सदलगा ग्राम में हुआ। माघ शुक्ल नवमी (17 फरवरी 2024) को उन्होंने चंद्रगिरी तीर्थ, डोंगरगढ़ (छत्तीसगढ़) में संलेखना पूर्वक मृत्युंजयी बनकर समाधिस्थ हो गए। उनके प्रथम समाधि स्मृति दिवस पर हम उन्हें कोटि-कोटि नमन करते हैं।

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