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ज्ञान के सागर: आचार्य विद्यासागर का अनंत दर्शन


एक वर्ष पूर्व माघ शुक्ल नवमी को जब संत शिरोमणि 108 आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने सल्लेखनापूर्वक समाधि ली, तब भारत ने अपने एक ऐसे महान संत को खोया, जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन धर्म, संस्कृति और राष्ट्र के उत्थान में समर्पित कर दिया। पढ़िए आचार्यश्री पर विशेष आलेख मुनि श्री अक्षय सागर महाराज की कलम से । 


जीवन यात्रा और साधना 10 अक्टूबर 1946 को कर्नाटक के चिक्कोड़ी में जन्मे श्री मल्लप्पाजी अष्टगे और श्रीमती श्रीमंतीजी के सुपुत्र विद्याधर (आचार्यश्री विद्यासागरजी महामुनिराज का पूर्व नाम) ने मात्र 22 वर्ष की आयु में 30 जून 1968 को अजमेर में मुनि दीक्षा ली और 22 नवंबर 1972 को नसीराबाद में आचार्य पद प्राप्त किया। कन्नड़ भाषी होते हुए भी उन्होंने राष्ट्रीय एकता के लिए हिंदी भाषा को बढ़ावा दिया।

एक वर्ष पूर्व जब संत शिरोमणि 108 आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने समाधि ली, तब यह अनुभव नहीं हुआ था कि उनके विचारों का प्रकाश कितना प्रखर है। आज एक वर्ष बाद, उनकी अनुपस्थिति में भी, उनका दर्शन समाज को निरंतर आलोकित कर रहा है। उनका जीवन मात्र एक व्यक्ति का जीवन नहीं, बल्कि एक संपूर्ण दर्शन था, जिसमें करुणा, ज्ञान और कर्तव्य का अद्भुत संगम था।

करुणा की अविरल धारा

आचार्य श्री के जीवन में करुणा एक सहज प्रवाह थी। उनके आचरण में प्राणी मात्र के प्रति अगाध प्रेम झलकता था। पिछले एक वर्ष में उनके द्वारा स्थापित अनेक सेवा संस्थान इसी करुणा को आगे बढ़ा रहे हैं। चाहे वह कैदियों का पुनर्वास हो या गरीबों की सेवा, उनकी करुणा आज भी हजारों लोगों के जीवन को प्रकाशित कर रही है।

ज्ञान का असीम सागर

वास्तव में आचार्य श्री एक ज्ञान वारिधि थे। उनके विचारों को समेटना वैसे ही है जैसे छोटी सी अंजुली में सागर को समेटने का प्रयास। फिर भी, उनके विचारों की कुछ बूंदें भी जीवन को धन्य करने के लिए पर्याप्त हैं। उनका चिंतन प्राचीन भारतीय दर्शन से प्रेरित होते हुए भी अत्यंत मौलिक था। आज के युवा उनके इसी ज्ञान से प्रेरणा लेकर नई राहें तलाश रहे हैं।

राष्ट्र और संस्कृति के प्रति समर्पण

निस्पृह और वीतरागी होते हुए भी आचार्य श्री के विचार भारतीयता और राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत थे। उनका मानना था कि आध्यात्मिक उन्नति और राष्ट्र की प्रगति एक-दूसरे के पूरक हैं। आज जब देश नई ऊंचाइयों को छू रहा है, उनके ये विचार और भी प्रासंगिक हो गए हैं।

शिक्षा का नया आयाम

आचार्य श्री की देशना में ज्ञान और कर्म का अनूठा समन्वय था। उन्होंने शिक्षा को केवल पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित नहीं रखा, बल्कि इसे जीवन के सर्वांगीण विकास का माध्यम बनाया।

प्रकृति और पर्यावरण का संरक्षण

आचार्य श्री का जीवन प्रकृति के साथ सामंजस्य का अनूठा उदाहरण था। उनकी सीख थी कि प्रकृति की रक्षा करना मानव धर्म का अभिन्न अंग है। आज जब पर्यावरण संकट विश्व के सामने एक बड़ी चुनौती है, उनके ये विचार मार्गदर्शक बन रहे हैं।

विचारों की जीवंत विरासत

एक वर्ष बीत जाने के बाद भी आचार्य विद्यासागर जी के विचार उतने ही प्रासंगिक हैं जितने पहले थे। उनकी देशना में छिपा जगत कल्याण का मार्ग आज भी समाज को नई दिशा दिखा रहा है। उनका जीवन सिखाता है कि कैसे व्यक्तिगत साधना को सामाजिक कल्याण से जोड़ा जा सकता है।

नई पीढ़ी के लिए प्रेरणास्रोत

आज की युवा पीढ़ी के लिए आचार्य श्री का जीवन एक अमूल्य प्रेरणास्रोत है। वे सिखाते हैं कि कैसे आधुनिक चुनौतियों का सामना प्राचीन मूल्यों और आधुनिक दृष्टिकोण के समन्वय से किया जा सकता है। उनके विचारों में छिपा है वह मार्ग, जो व्यक्तिगत विकास और सामाजिक कल्याण को एक साथ साध सकता है।

चतुर्विध संघ का पुनरुत्थान

आचार्य श्री ने जैन धर्म की मूल परंपरा को पुनर्जीवित किया। उनके मार्गदर्शन में 190 से अधिक दिगंबर मुनियों और 350 से अधिक आर्यिका माताओं ने दीक्षा ली। इस प्रकार उन्होंने तीर्थंकर भगवंतों के समय से चले आ रहे चतुर्विध संघ को पुनर्प्रतिष्ठित किया। हजारों ब्रह्मचारी भाई और बहनें जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में संलग्न हुए।

शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में योगदान

आचार्य श्री ने बालिका शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए प्रतिभास्थली ज्ञानोदय विद्यापीठ की स्थापना की। भारत की राष्ट्रीय शिक्षा नीति के निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। स्वास्थ्य के क्षेत्र में उन्होंने पूर्णायु आयुर्वेद चिकित्सालय एवं शोध संस्थान, जबलपुर की स्थापना में प्रेरणा दी। भाग्योदय चिकित्सालय के माध्यम से जैन समाज को चिकित्सा सेवा के लिए प्रेरित किया।

गौ सेवा और पर्यावरण संरक्षण

दयोदय महासंघ के माध्यम से आचार्य श्री ने गौशालाओं की स्थापना करने की जैन समाज को प्रेरणा दी और उसी का सुपरिणाम है कि देश के विभिन्न राज्यों में 150 से अधिक गौशालाएँ संचालित हैं जिनमें परित्यक्त, कत्लखानों से बचाए गए एक लाख से अधिक गौवंश को संरक्षण दिया जा रहा है। उन्होंने पर्यावरण संरक्षण और प्राणी कल्याण पर विशेष बल दिया। मांस निर्यात के विरोध में उनकी आवाज ने राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव डाला।

धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण

आचार्य श्री ने अनेक प्राचीन तीर्थक्षेत्रों का जीर्णोद्धार कराया और नए तीर्थों का सृजन किया। उन्होंने भारतीय संस्कृति और परंपराओं के संरक्षण पर विशेष बल दिया। भारत के प्राचीन नाम ‘भारत’ के प्रयोग पर जोर देते हुए ‘इंडिया’ के बजाय ‘भारत’ शब्द के प्रयोग को प्रोत्साहित किया।

राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक पुनर्जागरण

कन्नड़ भाषी होते हुए भी आचार्य श्री ने राष्ट्रीय एकता के लिए हिंदी भाषा को बढ़ावा दिया। उन्होंने भारतीय भाषाओं के महत्व को प्रतिपादित किया और शिक्षा में मातृभाषा के प्रयोग पर बल दिया।

एक वर्ष बाद: विरासत का प्रभाव

आज, उनकी समाधि के एक वर्ष बाद, उनके द्वारा प्रेरित संस्थाएं निरंतर प्रगति पथ पर अग्रसर हैं:

– शैक्षणिक संस्थानों में हजारों छात्र-छात्राएं शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं

– आयुर्वेदिक चिकित्सालय जन सेवा में संलग्न हैं

– गौशालाएं गौवंश के संरक्षण में योगदान दे रही हैं

– धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियां नई पीढ़ी को प्रेरित कर रही हैं

भविष्य की राह

आचार्य विद्यासागर जी का जीवन और उनके विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। उनका दर्शन हमें सिखाता है कि कैसे आध्यात्मिक उन्नति के साथ-साथ सामाजिक और राष्ट्रीय विकास को साधा जा सकता है। उनकी विरासत न केवल जैन समाज को, बल्कि संपूर्ण राष्ट्र को प्रेरित करती रहेगी।

एक अनंत यात्रा

भले ही वे शारीरिक रूप से हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके विचार, उनका दर्शन, उनकी करुणा आज भी समाज को प्रेरित कर रही है। उनका जीवन सिखाता है कि कैसे सरलता में गहराई, त्याग में समृद्धि, और निस्पृहता में लोक कल्याण समाहित हो सकता है। यही उनकी सबसे बड़ी विरासत है, जो आने वाली पीढ़ियों को भी प्रेरित करती रहेगी।

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