निर्यापक मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज ने मंगलवार को सागर में अपने प्रवचन में अतिशयों के अंतर समझाया। मुनि श्री के वचनों को सुनकर यहां की जनता खूब पुण्य अर्जित कर रही है। पढ़िए सागर से राजीव सिंघई की खबर…
सागर। जगत आज के समय पर अतिशयों को खोज रहा है। थोड़ा सा भी चमत्कार दिखता है तो व्यक्ति दौड़ पड़ता है। अतिशय दो प्रकार के होते हैं- एक अतिशय स्वयं में प्रकट होता है और एक अतिशय दूसरों में प्रकट होता है जो हमारे काम आता है। उपादान कृत अतिशय एवं निमित्त कृत अतिशय। इन दो अतिशयों के प्रति संसार में बड़ी चर्चा होती है तो अतिशय की परिभाषा है जो नहीं होना था, वह हो जाए। अग्नि उष्ण होती है वह जल हो जाए। ये है चमत्कार।
अपने पास शक्तियां कम नहीं
हम खुद अतिशयवान नहीं बन पाए लेकिन, दूसरे में अतिशय चाहते हैं, जिसका लाभ मुझे मिलना चाहिए। सबसे बड़ी बीमारी है लोगों में दूसरे की कमाई मुझे मिलना चाहिए और यही जिंदगी की सबसे बड़ी कमजोरी है। हमने स्वयं का टिफिन बचा नहीं लिया है, कल का पुण्य खो दिया है। जब जब हम भाव करते हैं कि दूसरे की कमाई मेरे काम आ जाए, दूसरे का पुण्य मेरे काम आ जाए, बस यही अपनी शक्तियों का ह्रास करने का मूल कारण है। अपने पास शक्तियाँ कम नहीं है लेकिन वह निस्तेज हो रही है।
यदि तुम्हें ये भाव आ जाए यह वस्तु अच्छी है
कभी किसी के पास कोई वस्तु दिखे जो तुम्हें अच्छी लग रही हो और यदि तुम्हें ये भाव आ जाए कि यह वस्तु अच्छी है, मुझे मिलना चाहिए, कैसे प्राप्त करूं, समझ लेना संसार के सबसे बड़े पापी तुम हो, तुम्हारा विनाश चालू हो गया। बस उसी दिन तुम अशुभ मान लेना कि अब हमारे बुरे दिन आने वाले हैं।
जय जिनेंद्र, वंदना, नमोस्तु कर लेना
अब उसमें कुछ भी हो सकता है धन-दौलत भी हो सकती है, परिवार, स्त्री, मकान, जमीन, ज्ञान, शास्त्र, गुरु भी हो सकता है, ये है व्यभिचार, ये है पाप, इसे कभी अपनी जिंदगी में आने मत देना। अब तुम कितना ही धर्म, पुण्य कर लेना, सब क्षय को प्राप्त हो जाएगा। अब दो भाव करना- एक भाव कि जिनके पास वह वस्तु है जो मेरे पास नहीं है और मैं चाह भी रहा हूं। यदि किसी के पास वह वस्तु मिल जाए तो इतना प्रमोद भाव करना, इतने हर्षित होना कि उसको जाकर जय जिनेंद्र, वंदना, नमोस्तु कर लेना।
नमस्कार करने का भाव करूंगा
भगवान के पास तो अनंत चतुष्टय, अनंत ज्ञान दर्शन है, मैं उसे छीनने का भाव नहीं, नमस्कार करने का भाव करूंगा। धन्य है प्रभु आपने वो पाया, जो मैं पाना चाहता हूँ, आप वहां पहुंच गए, जहां मैं जाना चाहता हूँ। उनके गुणों को देखकर वंदना करने का भाव आ जाए, समझ लेना वह तो भगवान बने रहेंगे और तुम्हारी भी भगवान बनने की प्रक्रिया चालू हो जाएगी, क्योंकि नीति रहती है कि ऐसा कार्य करो कि सामने वाले को हानि न हो और मुझे भी लाभ हो जाए।
यह ईश्वरवादी की विचारधारा है
दुनिया के सभी दर्शन इसको पसंद करते हैं कि तुम तो भगवान के पास जाओ, प्रसाद चढ़ाओ, उनकी पूजा अर्चना करो, उनको अगरबत्ती लगाओं, तुम्हें कुछ भी नहीं करना, अब जो कुछ भी करना है भगवान को करना है यह जो है यह ईश्वरवादी की विचारधारा है। जैनदर्शन कहता है नहीं, भगवान तुझे कुछ नहीं करना है, तेरे मिलने के बाद जो कुछ करना है मुझे करना है, इसलिए जैनियों के भगवान कुछ नहीं करते, हाथ पर हाथ मूर्ति बैठाते हैं। जैनी उन भगवान को मानता ही नहीं है जो भक्तों के, दुनिया के सारे काम करते हैं।
यही तो है सच्ची भक्ति, सच्चा चमत्कार
जैनदर्शन कहता है कि भगवन यदि तुमने मेरे काम किये तो मैं तुम्हें भगवान मानना बंद कर दूंगा। भगवान आपको पता नहीं होना चाहिए कि मैं आपका भक्त हूं, मुझे पता होना चाहिए कि मेरे तुम भगवान हो, आपके ह्रदय में मेरा स्थान नहीं होना चाहिए। मेरे ह्रदय में आपका स्थान रहेगा, यही तो है सच्ची भक्ति, सच्चा चमत्कार।
भगवान वही है जो किसी की चिंता नहीं करता
जो दूसरों की चिंता निरंतर करता रहता है। दुनिया उन्हें ही आराध्य मानती है। जैन दर्शन दुनिया के विचारों में क्यों नहीं मिल पा रहा है। अलग संप्रदाय है सो बात नहीं क्योंकि, जैनदर्शन का व्यक्ति तो अलग है ही, विचार भी अलग है। जैन दर्शन कहता है कि भगवान वही है जो किसी की चिंता नहीं करता, किसी के काम नहीं आता, धर्म-धर्मात्माओं की रक्षा का भी भाव नहीं, अधर्मी के नाश का भी भाव नही। ऐसी दशा जिस भगवान की होती है, उसका नाम है जिनेंद्र देव, उन्हें मात्र इतना मालूम है कि मैं हूं।
जैनियों के भगवान जिनेंद्र देव होते हैं
दूसरों के दु:खों में जिसे शामिल होने का भाव आ जाए, वह जिनेन्द्र देव नहीं हो सकता। वह गुरु या महान हो सकता है लेकिन, जिनेन्द्र देव नहीं। जो किसी को देखते नहीं है, किसी को आशीर्वाद भी नहीं देते, वो जैनियों के भगवान जिनेंद्र देव होते हैं।
दो तरफ से संबंध बनता है तो उसमें द्वंद होता है
दोनों तरफ से जब संबंध बने तो समझ लेना संसार है, व्यापार है मोह है, राग है, स्वार्थ है क्योंकि, संबंध दोनों तरफ से बन रहा है और जब दो तरफ से संबंध बनता है तो उसमें द्वंद होता है, विद्रूप हो सकता है, मिलते मिलते बिछड़ सकते हों, तुम्हारा संबंध पराधीन है, एक टूट गया तो क्योंकि, संबंध दो से है। अब बाप बेटे का संबंध कब तक है बाप मर गया तो वो बेटा नहीं, इसलिए जो संबंध दोनों तरफ से है उस संबंध पर कभी विश्वास मत करना, चाहे वह गुरु का हो, भगवान का हो, चाहे बाप का हो, चाहे परिवार का हो।
मदारी और नचाएगा तुम्हें
छोटों को यदि बड़ों की कोई कमजोरी पता चल जाए कि इस समय ये मेरे आश्रित हैं मेरे बिना इनका कोई अस्तित्व नहीं है, अब वो छोटा सिर पर बैठेगा, वो बन जाएगा। मदारी और नचाएगा तुम्हें। आजकल के छोकरे यही तो करते हैं। सास 80 साल से घर में रह रही है और बहू कल ही आई और कहती है कहां जाएगी क्योंकि, उसे पता चला गया कि मेरे बिना चल ही नहीं सकता, मेरे बिना इसका कोई दुनिया में नहीं है।
तुम उनके बिना जी के बताओ
बेटे को अहंकार आ गया, कहां जाएगा पिता, मेरे बिना खर्चा नहीं चलने वाला इसलिए दो चार बच्चे पैदा किया करो, बुढ़ापे में सहारे के लिए, एक की कठपुतली बन गए तो नाचोगे। यह दुनिया है तुम जिसके पीछे दौड़ोगे, वह दौड़ाएगी तुम्हें, इसलिए महावीर स्वामी ने हम साधुओ से कहा-दुनिया जिनके बिना नहीं जी पा रही है, तुम उनके बिना जी के बताओ, जाओ तुम्हें दुनिया का कोई व्यक्ति दुःखी नही कर सकता।
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