असाधारण पहचान, चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक, हमेशा लोगों के बीच चर्चा का विषय बनती है। साधारण पहचान केवल किसी काम से जुड़ी हो सकती है – चाहे वह अच्छा हो या बुरा। लेकिन, असाधारण पहचान वह होती है, जिसे लोग देखकर, प्रेरित होकर, और अनुकरण करके अपना आदर्श मानें। यह बात मुनि श्री सुधासागर महाराज ने धर्म सभा में कही। पढ़िए राजीव सिंघई की विशेष रिपोर्ट…
सागर। असाधारण पहचान, चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक, हमेशा लोगों के बीच चर्चा का विषय बनती है। साधारण पहचान केवल किसी काम से जुड़ी हो सकती है – चाहे वह अच्छा हो या बुरा। लेकिन, असाधारण पहचान वह होती है, जिसे लोग देखकर, प्रेरित होकर, और अनुकरण करके अपना आदर्श मानें। यह बात मुनि श्री सुधासागर महाराज ने धर्म सभा में कही। उन्होंने कहा कि हम अपनी साधारण पहचान पर गर्व कर सकते हैं, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण यह है कि हम अपने कार्यों के माध्यम से कैसी छाप छोड़ रहे हैं। क्या हम वही कार्य कर रहे हैं, जो दूसरों को प्रेरित करे? क्या हमारी अच्छाई सिर्फ हमारे दृष्टिकोण में है, या फिर वह वास्तविक रूप से समाज के लिए आदर्श बन चुकी है? हमारे कार्यों की पहचान उस बात से नहीं होती कि हम कितने लोगों को अपने पीछे खड़ा कर सकते हैं, बल्कि यह पहचान इस बात से बनती है कि कितने लोग हमारे कार्यों से प्रभावित हो रहे हैं और उसे अपना आदर्श बना रहे हैं। जब तक हम अपने कार्यों को असाधारण नहीं बनाएंगे, तब तक हमारा संस्कार और संस्कृति समाज में अपनी जगह नहीं बना पाएंगे।
किसी व्यक्ति की पहचान मरण के बाद
मुनि श्री सुधासागर जी महाराज ने यह भी कहा कि किसी व्यक्ति की अच्छाई का सही मूल्यांकन उसके जीवन के बाद होता है। यह देखा जाता है कि कितने लोग उसकी मृत्यु पर शोक व्यक्त करते हैं। अगर किसी की मृत्यु पर लोग खुश हों, तो समझिए उस व्यक्ति ने अपनी जिंदगी में अच्छे कार्य नहीं किए। वहीं, यदि किसी की मृत्यु पर सभी दुखी हों और उसकी अच्छाई की चर्चा करें, तो यह उसकी उच्च गति का संकेत है।
आचार्य श्री का जीवन और उनकी अद्वितीयता
आचार्य श्री के जीवन में एक ऐसी विशेषता थी कि जब वे हमारे बीच थे, तो हम सब उन्हें युग पुरुष मानते थे। उनके साथ बिताए हर पल की अहमियत थी। उनकी समाधि के बाद, हम सब के मन में यही विचार था कि एक युग का अंत हो गया। आचार्य श्री का आदर्श इतना प्रबल था कि लोग शास्त्र पढ़ने की बजाय उन्हें ही अपना शास्त्र मानने लगे थे। ऐसे महान पुरुषों की अनुपस्थिति कभी पूरी नहीं हो सकती। उनका कोई विकल्प नहीं था।
जीवन का उद्देश्य: असाधारण बनना
हमारा उद्देश्य केवल सांसारिक भोगों का नहीं होना चाहिए, बल्कि हमें ऐसी कला और गुण हासिल करने चाहिए, जिसे देखकर लोग कहें, “ऐसा तो मैंने कभी नहीं देखा!” जीवन में कुछ ऐसा हासिल करो जो 84 लाख योनियों में से किसी अन्य योनि में न प्राप्त हुआ हो। हमें यह अनुभव करना चाहिए कि हम जैनकुल में जन्म लेने के कारण कितना पुण्य इकट्ठा कर चुके हैं। इस पुण्य का सही उपयोग यह है कि हम अपने कार्यों को समाज के लिए असाधारण बनाएं।
स्वाध्याय और आत्मविकास – एक नया दृष्टिकोण
स्वाध्याय का महत्व न केवल यह है कि हम धार्मिक ग्रंथों को पढ़ें, बल्कि इसका उद्देश्य यह है कि हम उन ग्रंथों से कुछ नया सीखें, जो हमारे जीवन में नकारात्मकता से छुटकारा दिला सके। मंदिर में जाते समय, प्रतिदिन की पूजा में भी हमें वही आदत डालनी चाहिए कि भगवान के दर्शन करते हुए हमेशा कुछ नया अनुभव हो। जैसे पहले किसी मूर्ति को देखा था, वैसा आज नहीं देखा, ऐसा अनुभव हमें चाहिए।
आध्यात्मिक उन्नति- देखने का नया तरीका
अगर हम अपने दृष्टिकोण में बदलाव लाते हैं, तो हमें हर वस्तु में कुछ नया दिखेगा। मुनि श्री ने यह भी बताया कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने दृषटिकोन को वैज्ञानिक और खोजी बनाना चाहिए। जैसे नित्य जापित णमोकार मंत्र में भी नित्य कुछ नया देखना चाहिए। हर बार जब हम इसे पढ़ें या सुनें, तो एक नई अनुभूति मिलनी चाहिए। यही वह आदत है, जिसे हमें अपनी जिंदगी में अपनाना है।
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