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धर्मसभा में दिए प्रवचन : भगवान ने देखी मौत है और चले गए अमरता की ओर- निर्यापक मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज


श्री सुधासागर जी महाराज ने जीवन के महत्व पर प्रकाश डालते हुए तीन लक्ष्यों की बात की। पहला लक्ष्य वह होना चाहिए जो हमें प्राप्त करना है—वह जो ध्यान योग्य और भावना के योग्य हो। दूसरा लक्ष्य वह है जो हम प्राप्त कर सकते हैं, और तीसरा लक्ष्य वह है जो हमें प्राप्त है। हमें इन तीन बातों पर विचार करना चाहिए। पढ़िए राजीव सिंघई मोनू की रिपोर्ट…


सागर। श्री सुधासागर जी महाराज ने जीवन के महत्व पर प्रकाश डालते हुए तीन लक्ष्यों की बात की। पहला लक्ष्य वह होना चाहिए जो हमें प्राप्त करना है—वह जो ध्यान योग्य और भावना के योग्य हो। दूसरा लक्ष्य वह है जो हम प्राप्त कर सकते हैं, और तीसरा लक्ष्य वह है जो हमें प्राप्त है। हमें इन तीन बातों पर विचार करना चाहिए। उन्होंने कहा कि जब हम समयसार की गहराई में जाएं, तो हमारी भाषा, मन और शारीरिक क्रियाएं भी समयसारमय होनी चाहिए। समयसार में शुद्ध निश्चयनय है, जिसमें तन्मय हो जाना चाहिए। मन, वचन और काय दोनों निश्चयनय में होना चाहिए।

 निश्चयनय में अनेकांत नहीं होता

महाराज ने बताया कि अमृतधारा में एक चीज का अभाव है, यह स्पष्ट है, लेकिन जो अनुभूति हो रही है, वह एक की हो रही है, तीनों की नहीं। अनन्त धर्मात्मक वस्तु होने के बावजूद, हमें एकत्व की अनुभूति होती है। निश्चयनय में अनेकांत का स्थान नहीं है; वहाँ केवल एक होता है, अभेद होता है। ज्ञान, दर्शन, और आत्मा सभी अलग हैं, लेकिन इन सबको एक करके एक का अनुभव करना ही निश्चयनय का चमत्कार है। जो मिट रहा है, उसमें अविनाशी का दर्शन करना चाहिए। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य जैसे पर्यायों को मिटते हुए देखकर सत की अनुभूति होनी चाहिए। यही चैतन्य चमत्कार है, यही समयसार है। इस प्रक्रिया में, जैसे हम मृत्यु की ओर बढ़ते हैं, हमें अमरता का आनंद लेना चाहिए। यह अनुभव हमें जीवन की गहराइयों में उतरने और हमारी आत्मा की सच्चाई को पहचानने में मदद करता है।

 नाशवान वस्तुओं से हुआ वैराग्य

उन्होंने कहा कि जितने महापुरुषों को वैराग्य प्राप्त हुआ, वह अविनाशी वस्तुओं से नहीं, बल्कि नाशवान वस्तुओं से हुआ। तारों और बादलों से वैराग्य नहीं आया, बल्कि उनके विघटन से वैराग्य की अनुभूति हुई। जब हम मृत्यु को देखते हैं, तब हम अमरता की ओर बढ़ते हैं—यही एक चमत्कार है। किसी को मरते हुए देखकर अगर हम सोचते हैं कि “कल मैं भी मरूँगा,” तो यह बारह भावना है। अभी आप समयसार की गहराई को नहीं समझ सकते। साधु को देखकर साधुता की अनुभूति, रागी को देखकर राग की अनुभूति और प्रतिकूल वातावरण को देखकर क्रोध की अनुभूति होती है। जो घटित हो रहा है, वह ज्ञेयाकार है। ज्ञान का ज्ञेयाकार होना ही संसार है, और ज्ञेय का ज्ञानकार होना ही परमार्थ है। यही जीवन का सत्य है, जो हमें आत्मिक विकास की ओर ले जाता है।

प्रज्ञा भाव को जगाएं

चमत्कार यह है कि मौत को देखकर हमें यह अनुभव नहीं होना चाहिए कि “कल मैं भी मरूंगा।” यह सोच कि “वह मरा है, मैं अमर रहूंगा,” या “यह दुःखी है, मैं सुखी हूँ,” हमें आत्मज्ञान से दूर ले जाती है। चरणानुयोग हमें सिखाता है कि यदि कोई दुखी है, तो हमें भी उसके दुख में समर्पित होना चाहिए। यदि आप दूसरे के दुःख को देखकर दुखी नहीं होते, तो यह दर्शाता है कि आपकी आँखों में संवेदनशीलता का अभाव है। दुखी को देखकर दुखी होना और मृत्यु को देखकर मृत्यु की अनुभूति करना आवश्यक है, लेकिन निश्चयनय कहता है कि संसार को दुखी देखकर हमें सुखी होना चाहिए। यही निश्चयनय और धर्म का अर्थ है।आत्मा आठ कर्मों से लिप्त है, लेकिन शुद्धोपयोगी को शुद्ध का आनंद मिल रहा है—यही प्रज्ञा कहलाती है। दृश्य राग का होना और प्रज्ञा को वीतरागता का आनंद आना, यही सच्ची अनुभूति है। यदि आत्मा आठ कर्मों की बेड़ियों में जकड़ी है, तो हमें प्रज्ञा से आत्मा को अलग करना चाहिए, न कि साक्षात शरीर से। समयसार एक महामंत्र है, जिसने अब तक दुख का पहाड़ नहीं तोड़ा। दूसरों की मौत को देखकर हमें अपनी ज़िंदगी की मूल्य को समझना चाहिए। अगर दो व्यक्ति खड़े हैं—एक आपका पिता और दूसरा एक सामान्य व्यक्ति—तो सामान्य व्यक्ति को देखकर आपको कोई भाव नहीं आना चाहिए। लेकिन पिता को देखकर “पिता” शब्द का ना आना, यही प्रज्ञा का चमत्कार है। हमें किसी को हटाना नहीं है; हमें बस प्रज्ञा को जगाना है।

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