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दसलक्षण महापर्व (पर्यूषण पर्व), अनंत चतुर्दशी, दसवां दिन 17 सितम्बर : अपनी आत्मा में रमण करना उत्तम ब्रह्मचर्य है


ब्रह्मचर्य जो हमारी साधना का मूल है, सभी साधनाओं में ब्रह्मचर्य को सबसे प्रमुख स्थान दिया गया हैं। आत्मा ही ब्रह्म है उस ब्रह्मस्वरूप आत्मा में चर्या करना सो ब्रह्मचर्य है। जिस प्रकार से एक अंक को रखे बिना असंख्य बिन्दु भी रखते जाइये किन्तु क्या कुछ संख्या बन सकती है? नहीं, उसी प्रकार से एक ब्रह्मचर्य के बिना अन्य व्रतों का फल कैसे मिल सकता है अर्थात् नहीं मिल सकता। पढ़िए डॉ. सुनील जैन संचय का विशेष आलेख


आज बात ‘ब्रह्मचर्य धर्म’ की हैं। ब्रह्मचर्य जो हमारी साधना का मूल है, सभी साधनाओं में ब्रह्मचर्य को सबसे प्रमुख स्थान दिया गया हैं। आत्मा ही ब्रह्म है उस ब्रह्मस्वरूप आत्मा में चर्या करना सो ब्रह्मचर्य है। जिस प्रकार से एक अंक को रखे बिना असंख्य बिन्दु भी रखते जाइये किन्तु क्या कुछ संख्या बन सकती है? नहीं, उसी प्रकार से एक ब्रह्मचर्य के बिना अन्य व्रतों का फल कैसे मिल सकता है अर्थात् नहीं मिल सकता।

आज के समय में लोगों के हृदय में देह आकर्षण हैं और देह आकर्षण को ही लोग प्रेम का नाम देने लगते हैं। बंधुओं! सच्चे अर्थों में वह प्रेम नहीं, वह तो केवल शारीरिक आकर्षण हैं, जो थोड़े दिन तक टिकता हैं, बाद में सब छूट जाता हैं। वस्तुतः प्रेम हमारे भीतर का आत्मिक स्तर का प्रेम होना चाहिए, वह प्रेम अगर एक बार उद्घाटित हो गया तो जीवन की दिशा-दशा सब परिवर्तित हो जाएगी। गृहस्थों को कहा गया कि तुम संयम में रहो, अपने स्वधार-संतोष व्रत का पालन करो, एक-दूसरे के अतिरिक्त सारे संसार में अपने भीतर पवित्रता ले आओ, तुम्हारा जीवन आगे बढ़ जाएगा क्योंकि काम का कभी अंत नहीं होता।

जो व्यक्ति आत्मा के जितना निकट है वह उतना ही बड़ा ब्रह्मचारी है तथा जो आत्मा से जितना दूर है वह उतना ही बड़ा भ्रमचारी है । हमें ब्रह्मचारी और भ्रमचारी में अन्तर करके चलना है । ब्रह्मचारी का अर्थ है ब्रह्म ( ब्रह्ममय आचरण करने वाला ) में जीने वाला और भ्रमचारी का अर्थ है भ्रम में जीने वाला । भ्रम के टूटे बिना ब्रह्म को पाना असम्भव है और ब्रह्म को पाने के लिए उसका ज्ञान होना आवश्यक है । आत्मा की दूरी और नैकट्य से ही ब्रह्म और अब्रह्मचर्य का परिचय मिलता है ।

ब्रह्मचर्य व्रत के बिना जितने भी कायक्लेश तप किये जाते हैं वे सब निष्फल हैं, ऐसा श्री जिनेन्द्र देव कहते हैं। बाहर में स्पर्शन इन्द्रियजन्य सुख से अपनी रक्षा करो और अभ्यंतर में परमब्रह्म स्वरूप का अवलोकन करो। इस उपाय से मोक्षरूपी घर की प्राप्ति होती है। शील की रक्षा के लिए, नौ बाढ़ों का पालन करना चाहिए तथा अपना ब्रह्म स्वरूप अंतरंग में देखना चाहिए। तथा इनकी वृद्धि की भावना नित्य भानी चाहिए क्योंकि इससे ही यह मनुष्य भव सफल होगा।

ब्रह्मचर्य को धारण करना हैं तो देह नहीं, देही को पहचानो। भीतर की आत्मा को पहचानो, जो शरीर में होकर के भी शरीरातीत हैं, उसे पहचानने की कोशिश करो। वह आत्म-तत्व हैं, जिसकी दृष्टि आत्मा पर केंद्रित हो जाती हैं, उसके हृदय में ब्रह्मचर्य का विलास प्रकट होता हैं और जिसकी दृष्टि में केवल शरीर होता हैं वह भोग की वासना का शिकार बनता हैं। अपने अंदर दृष्टि जाग्रत कीजिये और देह-दृष्टि से ऊपर उठने की कोशिश कीजिए।

स्वतंत्रता की दुहाई देकर हम स्वच्छंद होते जा रहे हैं : आज गृहस्थ का आचरण मर्यादा विहीन होता जा रहा है । निरन्तर मर्यादायें टूट रही हैं । स्वतंत्रता की दुहाई देकर हम स्वच्छंद होते जा रहे हैं ।पश्चिम की अय्यासी जिंदगी का भूत सवार है । ऐसे युग में यदि हमें ब्रह्मचर्य धर्म की शिक्षा और उसके संस्कार लेने हैं तो सबसे पहले विदेशों से आई इस अपसंस्कृति से बचना होगा । कुत्सित साहित्य , फिल्मी संसार और भड़कीले तथा अमर्यादित फैशन / परिधान से बचना होगा । खानपान की शुद्धि पर ध्यान रखकर शुद्ध सात्विक विचारधारा रखनी होगी । अपने घर परिवार , समाज , नगर , राज्य और देश की जिन सीमा / मर्यादाओं का उल्लंघन कर हमने समुन्दर पार पश्चिम की सभ्यता को अपना लिया है उसे आज ही और इसी समय तिलांजलि देना होगी और भारतीय चिन्तनधारा के मूल संयम / सादगी से बंधना होगा । जैसे बांध फटता है तो तबाही हो जाती है ठीक वैसे ही जब मर्यादा टूटती है व्यक्ति की , परिवार की , समाज की तो फिर पतन ही पतन , विनाश ही विनाश रहता है। शील की रक्षा के लिए, नौ बाढ़ों का पालन करना चाहिए तथा अपना ब्रह्म स्वरूप अंतरंग में देखना चाहिए। तथा इनकी वृद्धि की भावना नित्य भानी चाहिए क्योंकि इससे ही यह मनुष्य भव सफल होगा।

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