स्वयं पर पूरी तरह नियंत्रण करना भी संयम माना गया है। प्राणियों की हिंसा ना हो जाए और इन्द्रियों का दुरुपयोग ना हो जाए इस बात का ध्यान रखना भी संयम है। पढ़िए मुनि श्री पूज्य सागर महाराज का विशेष आलेख…
आज हम पहुंच चुके हैं दसलक्षण धर्म का छठवे पायदान पर। छठा कदम यानि संयम धर्म। देखभाल कर, सही रास्ते पर चलना ही संयम है। स्वयं पर पूरी तरह नियंत्रण करना भी संयम माना गया है। प्राणियों की हिंसा ना हो जाए और इन्द्रियों का दुरुपयोग ना हो जाए इस बात का ध्यान रखना भी संयम है। असंयम की स्थिति इन दो कार्यों से ही बनती है। इन दोनों बातों का ध्यान रखने से शरीर मे किसी प्रकार का रोग नहीं होगा। खाने, पीने सोने, चलने पर संयम धर्म नियंत्रण लगाता है। जिस गाड़ी में ब्रेक हो उसे किसी बात की चिंता नहीं होती। उसी तरह संयम से रहने वाला प्राणी चिंता मुक्त होकर अपने जीवन के विकास के मार्ग पर लगा रहता है। संयम धर्म व्यायाम करने वाली जिम के समान है।
जिम में जाने वाला व्यक्ति अपने खाने और चलने पर ध्यान देता है, तभी वह शरीर को हुष्ट, पुष्ट रखने के साथ स्वस्थ रखता है। मन, वचन और काय पर नियंत्रण का पाठ संयम धर्म सिखाता है। संस्कृति और संस्कारों का संरक्षण भी इसी धर्म से होता है। व्यक्ति के संस्कार और संस्कृति की पहचान उसके खाने, सोने और पहनने और बोलने से होती है।
इन सब बातों को मर्यादा में रखना ही संयम धर्म धर्म सिखाता है। हम प्राणी संयम के लिए पानी छान कर पिएंगे तो देखने वाला क्या कहेगा यह धर्मात्मा है। जब विदेश में पानी छानेगे तो कहेगा भारतीय संस्कृति, जैन संस्कृति में ऐसा ही होता है। जब हम किसी को आप कहकर पुकारेंगे और उसका सहयोग करेंगे तो वचन और काय पर संयम होगा।
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