देवों के द्वारा रचित अशोक वृक्ष आदि को प्रातिहार्य कहते हैं। वे आठ होते हैं-1. अशोक वृक्ष, 2. तीन छत्र, 3. रत्नजड़ित सिंहासन, 4. दिव्यध्वनि, 5. दुन्दुभिवाद्य, 6. पुष्पवृष्टि, 7. भामण्डल, 8. चौंसठ चवर ।
1. अशोक वृक्ष – समवसरण में विराजित तीर्थंकर के सिंहासन के पीछे-मस्तक के ऊपर तक फैला हुआ, रत्नमयी पुष्पों से सुशोभित, लाल-लाल पत्रों से युक्त देवरचित अशोक वृक्ष होता है।
2. तीन छत्र – तीन लोक की प्रभुता के चिह्न, मोतियों की झालर से शोभायमान, रत्नमयी, ऊपर से नीचे की ओर विस्तार युत, तीन छत्र भगवान् के मस्तक के ऊपर स्थित रहते हैं।
3. रत्न जड़ित सिंहासन – उत्तम रत्नों से रचित, सूर्यादिक की कान्ति को जीतने वाला, सिंह जैसी आकृति वाला सिंहासन होता है, सिंहासन में रचित एक सहस्रदल कमल होता है। भगवान् उससे चार अंगुल ऊपर अधर में विराजते हैं।
4. दिव्यध्वनि – केवलज्ञान होने के पश्चात् प्रभु के मुख से एक विचित्र गर्जना रूप अक्षरी ओकार ध्वनि खिरती है, जिसे दिव्यध्वनि कहते हैं। यह ध्वनि तिर्यञ्च, मनुष्य एवं देवों की भाषा के रूप में परिणत होने के स्वभाव वाली, मधुर, मनोहर, गम्भीर और विशद, भगवान् की इच्छा न होते हुए भी भव्य जीवों के पुण्य से सहज खिरती है, पर गणधरदेव की अनुपस्थिति में नहीं खिरती है।
5. दुन्दुभिवाद्य (देवदुन्दुभि) – समुद्र के समान गम्भीर, समस्त दिशाओं में व्याप्त, तीन लोक के प्राणियों के शुभ समागम की सूचना देने वाली, तिर्थंकरो का जयघोष करने वाली देवदुन्दुभि होती है।
6. पुष्पवृष्टि – समवसरण में आकाश से सुगन्धित जल की बूंदों से युक्त एवं सुखद मन्दार, सुन्दर, सुमेरू, पारिजात आदि उत्तम वृक्षों के सुगन्धित ऊध्र्वमुखी दिव्य पुष्पों (फूलों) की वर्षा होती रहती है।
7. भामण्डल – तीर्थंकर के मस्तक के चारों ओर, प्रभु के शरीर को उद्योतन करने वाला अति सुन्दर, अनेक सूर्यों से भी अत्यधिक तेजस्वी और मनोहर भामण्डल होता है। इसकी तेजस्विता तीनों जगत् के द्युतिमान पदार्थों की द्युति का तिरस्कार करती है। इस भामण्डल में भव्यात्मा अपने सात भवों को देख सकता है (तीन अतीत के, तीन भविष्य के और एक वर्तमान का)
विशेष : वापिका के जल व भामण्डल में सात भव लिखे नहीं रहते, किन्तु तीर्थंकर की निकटता के कारण वापिका के जल व भामण्डल में इतना अतिशय हो जाता है कि उनके अवलोकन से अपने सात भवों के ज्ञान का क्षयोपशम हो जाता है। (पं. रतनचन्द्र मुख्तार, व्यक्तित्व और कृतित्व, पृ. 1214)
8. चौंसठ चंवर – तीर्थंकर के दोनों ओर सुन्दर सुसजित देवों द्वारा चौंसठ चंवर ढोरे जाते हैं। ये चंवर उत्तम रत्नों से जड़ित स्वर्णमय दण्ड वाले, कमल नालों के सुन्दर तन्तु जैसे-स्वच्छ, उज्वल और सुन्दर आकार वाले होते हैं।
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