दीपावली में मिट्टी के दीये का सांस्कृतिक महत्त्व है। इसी महत्त्व के कारण एक परंपरा बनी है कि दीपावली की रात मिट्टी के दीयों को जलाया जाए। मिट्टी के दीये बनाने वाले कुम्हार भारतीय समाज के अभिन्न अंग हैं। क्यों न इस दिवाली इन्हीं कुम्हारों के चेहरे पर मुस्कान लौटाई जाए। ऐसी ही अपील की है अंतर्मुखी मुनि पूज्य सागर महाराज ने। उन्होंने आह्वान किया है कि इस बार ज्यादा से ज्यादा संख्या में कुम्हारों से मिट्टी के दीए खरीदें और पारंपरिक रूप से मनाएं दिवाली….
हमारे यहां पर्व और त्योहार जीवन की एकरसता को ही नहीं तोड़ते, बल्कि जीवन में उत्सवधर्मिता का भी संचार करते हैं। मन में आशाओं के दीपक जलाते हैं। इसके साथ-साथ आनंद और पुरुषार्थ को बढ़ाने का काम करते हैं। जब-जब ऐसा होता है, तब-तब समाज और राष्ट्र में नई ऊर्जा प्रवाहित होती है। फिर हम श्रेष्ठता के सोपान की ओर अग्रसर हो जाते हैं। हमारे यहां ऐसे पर्व-त्योहारों की प्राचीन परंपरा है। उससे ही हमारा जीवन संचालित होता है, आगे बढ़ता है। यहां तक कि हमारा समाज शिक्षित होता जाता है। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पर्व और त्योहार समाज को नए-नए संदर्भ और कालखंड में परंपरा-बोध से अवगत कराते हैं। हमें अपनी संस्कृति से परिचित कराते हैं। दीपावली में मिट्टी के दीये का सांस्कृतिक महत्त्व है। इसी महत्त्व के कारण एक परंपरा बनी है कि दीपावली की रात मिट्टी के दीयों को जलाया जाए। मिट्टी के दीये बनाने वाले कुम्हार भारतीय समाज के अभिन्न अंग हैं। यदि हम अपनी लोक संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में चीजों को देखने-परखने की कोशिश करें तो अनुभव कर पाएंगे कि कुम्हार और समाज एक दूसरे के पूरक तत्व हैं। उन्हें एक दूसरे से अलग करके देखना भारी भूल होगी।
खतरे में अस्तित्व
इन सबके बावजूद एक तथ्य हमें दिखाई दे रहा है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है। आज आधुनिकता के नाम पर कुम्हारी संस्कृति का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। कुम्हारी परंपरा धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। हम अपनी संस्कृति और परंपरा से ही विमुख होते जा रहे हैं। इस बात का स्मरण रखना चाहिए कि कोई भी समाज अपनी संस्कृति और परंपरा से अलग होकर अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकता। मानव समाज अपना विकास तभी कर सकता है, जब उसे अपनी संस्कृति का ज्ञान हो। भारतीय संस्कृति में लोक का तत्व प्रधान है। इसी लोक-तत्व में कुम्हारी परंपरा का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। भारतवर्ष में अनेक प्रदेश हैं। इन प्रदेशों की अलग-अलग भाषाएं हैं। इन भाषाओं में रचा हुआ उनका अलग-अलग साहित्य है, साथ में कुम्हारी परंपरा भी है। वह जयपुर की ब्लू पॉटरी हो या फिर तमिलनाडु की टेराकोटा। भारतवर्ष में कुम्हारी परंपरा की संपन्न विरासत रही है लेकिन दुखद यह है कि आधुनिकता के नाम पर हम अपनी परंपरा को धीरे-धीरे भूल रहे हैं, जिसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। एक तरफ कुम्हारी परंपरा से जुड़े लोग बेरोजगार हो रहे हैं। दूसरी तरफ प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है। पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है।
खतरे में हस्तशिल्प परंपरा
यह बात साफ-साफ दिखाई दे रही है कि कुम्हार समाज के लोग अपना पेट भरने के लिए दूसरे रोजगार की खोज में हैं। वे अपना पुश्तैनी काम छोड़ रहे हैं। इससे भारतवर्ष की हस्त-शिल्प से जुड़ी प्राचीन परंपरा खतरे में आ गई है। आश्चर्य की बात यह है कि मिट्टी के बर्तनों को छोड़कर हमने जो विकल्प चुना है, वह मानव जीवन के लिए खतरनाक है, स्वाथ्य के लिए नुकसानदायक है, पर्यावरण के लिए हानिकारक है। इन खतरों से निपटना है तो हमें कुम्हारी परंपरा को जीवित रखना होगा। इस बात की चर्चा करते हुए मुझे सुखद अनुभूति हो रही है कि इस दिशा में लोगों ने विचार करना शुरू कर दिया है। आज यह लक्ष्य है कि मिट्टी के बर्तन फिर से हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा बनें, ताकि हम स्वस्थ रहें। समाज में प्रदूषण न फैल सके। पर्यावरण के अनुकूल हमारा जीवन हो। यदि इन बातों का ध्यान रखेंगे तो स्वच्छ और स्वस्थ वातावरण रहेगा। इसका परिणाम दूरगामी होगा। स्वच्छ वातावरण में नई पीढ़ी का आगमन होगा। वह स्वस्थ होगी। इसी विचार को मन-मस्तिष्क में रखकर दिवाली श्रीफल जैन न्यूज ने एक पहल की, जिसे नाम दिया गया है- ‘दिवाली खुशियों वाली।’ हमें मिट्टी के दीये का प्रकाश पश्चिम से लेकर सुदूर पूरब तक फैलाना होगा। जगह-जगह लोगों को इस अभियान से जोड़ना होगा। वे कुम्हारों के घर जाएं। वहां से मिट्टी के दीये को खरीदे और दीपावली की रात उसी दीये से अपने घर को रोशन करें। हमें शैक्षणिक संस्थाओं, डॉक्टरों, इंजीनियरों के साथ-साथ सामाजिक कार्यकर्ता और राजनेताओं को भी इस अभियान से जोड़ना होगा। इससे कुम्हारों के हाथ में रुपए आएंगे। उनके दीये की अच्छी बिक्री होगी। उन्हें मेहनत का फल मिलेगा और वे खुशी-खुशी दिवाली मना पाएंगे। इस बात का स्मरण रखना चाहिए कि हमारे यहां पर्व और त्योहार के विधि-विधान में मिट्टी के बर्तनों का उपयोग होता रहा है। उन्हें शुद्ध और प्रकृति सम्मत माना जाता है। वैसे भी भारतीय समाज के मजबूत ताने-बाने को समझना हो तो त्योहार के विधि-विधान को बारीकी से देखना चाहिए। फिर यह बात समझ आती है कि त्योहारों का प्रकृति से अनूठा संबंध है। यह विस्तृत ज्ञान का विषय है। इसकी चर्चा अन्यत्र करेंगे। फिलहाल इतना कहना जरूरी है कि भारतीय संस्कृति जिनसे फलती-फूलती रही है, उनमें प्रकृति और त्योहार का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है।
उम्मीद का प्रतीक दीया
यह मान्यता है कि दिवाली शस्य संपन्नता का प्रतीक है, दिवाली नए वर्ष का आह्वान है, नए हर्ष का प्रतीक है। दिवाली की रात जलने वाला दीया इस बात की उम्मीद जगाता है कि आने वाला वर्ष प्रकाशमान होगा, घर-घर में उजियारा लिए होगा। कुम्हारी परंपरा को पुनर्जीवित करने और कुम्हारों के घरों में फिर से उजियारा लाने के लिए इससे सुंदर अवसर क्या हो सकता था! यही विचार कर ‘दिवाली खुशियों वाली’ का स्मरण हुआ। यह कल्पना की गई कि समाज फिर से मिट्टी के बर्तनों का उपयोग करना प्रारंभ करे ताकि कुम्हारी परंपरा से जुड़े लोगों काम मिले। उनकी हस्त-शिल्प कला पुनर्जीवित हो। यदि ऐसा होगा तो कुम्हारों को अर्थ की प्राप्ति होगी। उनका जीवन भी खुशहाल रहेगा। इसका प्रारंभ मिट्टी के दीये से हुआ है। इस अवसर का चुनाव इसलिए भी किया गया, क्योंकि उत्सव के माध्यम से समाज और जीवन को संयमित और अनुशासित करना सरल होता है। उत्सव प्रेरणा के स्रोत होते हैं। स्वयं भगवान महावीर तप के प्रतीक हैं। आज संस्कृति विमुख होते समाज को सच से साक्षात्कार कराने के लिए तप की जरूरत है। यह कोशिश उसी तप का प्रस्थान बिन्दु है।
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