व्यक्तित्व

मेरी जीवन गाथा : मोक्ष मार्ग पर आरोहण


अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर महाराज के 9वें दीक्षा दिवस पर श्रीफल जैन न्यूज में उन्हीं की कलम से उनकी जीवनगाथा प्रस्तुत की जा रही है। पाठकों को इस लेखनमाला की एक कड़ी हर रोज पढ़ने को मिलेगी, आज पढ़िए इसकी चौथी कड़ी….


4. आचार्य श्री और माताजी का स्नेह

दीक्षार्थी विजय भैया मेरे मामा के लड़के थे। उनका और सनावद वालों का चौका था। तब बातों ही बातों में पता चला कि वे दोनों मुझे इंदौर इसलिए छोड़ आए थे क्योंकि उन्हें लगा था कि मैं मस्ती करूंगा, सब को परेशान करूंगा। मुझे चौके में कुछ काम करने को कहा तो मैंने कहा कि तुम तो मुझे छोड़कर आ गए थे तो मैं क्यों काम करूं। यह कहकर मैंने आगे निकल गया। वहीं कुछ आगे एक कमरे आचार्य श्री के संघ में आर्यिका वर्धित मतिमाता जी विराजमान थीं।

मैंने उनके दर्शन किए, लेकिन वह मौन थीं, कुछ नहीं बोलीं। फिर पता चला कि माता जी को अभी 2-3 दिन मंदिर नहीं आना है। मैंने ऐसे ही माता जी के पास बैठा रहा। वहां कुछ और लोग भी थे जो माता जी अपनी बातें सुना रहे थे। आचार्य श्री को देखकर जो एक अनुभूति हुई थी, वही अनुभूति माता जी को देखकर हो रही थी। फिर रोज माता जी के पास कुछ देर बैठने लगा क्यों हम(परिवार) जहां रुके थे, वहीं कुछ आगे माता जी का कमरा था। दस फरवरी को दोनों भैया (राजू -विजय ) की दीक्षा होनी थी तो मेरे मामा के परिवार के लोग धीरे-धीरे वहां आने लगे थे। सभी मुझे देखकर सोचते थे कि यह कैसे आ गया इतनी जल्दी।

हम लगभग एक या दो फरवरी, 1998 को ही भैया जी के साथ हो लिए थे। एक दिन आचार्य श्री ने बड़े प्यार से कहा कि जब तक यहां हो, कुछ धर्म का ही पढ़ लो। हम दोनों, मैं और मनोज जैन, मेरे गांव से आया था, भैयाओं के साथ आचार्य श्री के साथ णमोकार पढ़ने लगे। उसके बाद संघ में अन्य साधुओं से भी कुछ ना कुछ धर्म की बातें करते थे। मैं आचार्य श्री कमरे में ही सोता था लेकिन कभी-कभी तो आचार्य श्री की और संघ की सुबह की सारी सामायिक, प्रतिक्रमण आदि सब क्रिया हो जाती थी, उसके बाद मेरी नींद खुलती थी लेकिन धीरे-धीरे 5-6 दिन में सारी चर्या याद हो गई। मैं सुबह जल्दी उठने लगा और आचार्य श्री ससंघ के साथ जंगल आदि जाने लगा। मुझे यह चर्या कुछ दिन तो अजीब लगी, जैसे जल्दी उठना, जंगल जाना, मंदिर जाना, दिन भर कुछ ना कुछ पढ़ना लेकिन अब यह कुछ-कुछ अच्छी भी लगने लगी थी। आचार्य श्री स्नेह भी बढ़ने लगा था और उनका साथ भी मुझे अच्छा लगने लगा था। अभी तक भी कोई संघ में रुकने का मन नहीं बना था। पता नहीं, बाकी सभी मेरे बारे में क्या सोचते थे।

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अंतर्मुखी

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