ग्रन्थमाला

जीवन की आवश्यकताएं बनती हैं दुःखों का कारण

जीवन की आवश्यकताएं कर्म का कारण हैं। इन आवश्यकताओं के कारण ही अच्छे और बुरे कर्मों का बंधन होता है। रोटी, कपड़ा और मकान की चिंता ही हमें अच्छे और बुरे कर्मों की ओर प्रवृत करती हैं। इन्हीं के कारण राग-द्वेष, क्रोध, लालच आदि अवगुणों का जन्म होता है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति में ही कोई हमारा मित्र बन जाता है तो कोई हमारा शत्रु बन जाता है।

हमारी इच्छाओं और कर्म बंधनों के कारण ही हमारा इस दुनिया में आवागमन लगा रहता है। संसारी वस्तुओं से मोह बढ़ने के कारण हमारे दुःखों की मात्रा भी बढ़ती जाती है। यह स्थिति चिंताओं में वृद्धि करती है और अशुभ कर्मों की ओर ले जाती है। इसके चलते संसार का परिभ्रमण चक्र चलता ही रहता है और कभी भी दुखों का अंत नहीं होता। इच्छाओं की समाप्ति से ही सम्यक दर्षन होता है और सम्यक दर्शन से मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो पाता है

आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है की

क्षुत्पिपासाजरातङ्कजन्मान्तकभयस्मयाः ।

न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते ॥6।।

अर्थात – जिसके भूख, प्यास, जरा, रोग, जन्म, मरण, भय, मद, राग, द्वेष, मोह, चिंता, अरति, निद्रा, विस्मय, विषाद, प्रस्वेद और खेद नहीं है, वह पुरुष वीतरागी आप्त कहा जाता है ।

उक्त सभी सांसारिक दुखों से जो मनुष्य रहित है, वास्तविकता में वहीं आनंद को प्राप्त करता है। वही सुखी और वीतराग आप्त है। वह दुनिया के सारे विकल्पों से दूर हो जाता है। वही परमाप्त (भगवान) कहलाता है, वही पूजनीय होता है। शेष सभी संसार को बढ़ाने वाले हैं। संसार में रहते हुए सभी विकल्पों और मोह से दूर हो जाना ही हमारा उद्देश्य होना चाहिए, ताकि हम जीवन को सार्थक बना सकें और मोक्ष मार्ग की महायात्रा की ओर अपने कदम बढ़ा सकें।

(अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर महाराज की कलम से)

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