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ऐसे हैं हमारे वात्सल्य वारिधि जी… जानिए बाल यशंवत से आचार्य श्री १०८ वर्धमान सागर जी बनने तक का सफ़र …

देश का मध्यभाग, मध्यप्रदेश कई परम संतों की भूमि रही है।मध्यप्रदेश के खरगौन जिले में सनावद में पैदा हुए बालक यशवंत, कैसे संयम,तपस्या के मार्ग पर चलते हुए हमारे वात्सल्य वारिधि आचार्य श्री १०८ श्री वर्धमान सागर जी बन गए । सनावद, ऐसी पावन धरा, जिसमें जैन धर्म को अनेक संतों ने आध्यात्मिकता का अद्भुत माहौल दिया है इसी माहौल के बीच पवित्र नगरी सनावद में पर्युषण पर्व के तृतीय उत्तम आर्जव दिवस पर माता श्रीमती मनोरमा देवी जैन और पिता श्री कमल के घर एक होनहार पुत्र का जन्म हुआ। मगर विधि का विधान ऐसा हुआ कि केवल १२ साल की आयु में आपकी माताजी का असामयिक निधन हुआ। संभवत, यह पहला अवसर था जब आचार्य श्री के मन में वैराग्य भाव का प्रस्फुटन हुआ।

आचार्य श्री विमल सागर जी महाराज, आचार्य श्री महावीर कीर्ति जी महाराज, तृतीय पट्टाधिश आचार्य श्री धर्म सागर जी महाराज के दर्शन का उनके बाल मन पर प्रभाव पड़ा। सन 1967 में श्री मुक्तागिर सिद्ध क्षेत्र में आर्यिका श्री ज्ञानमति माताजी से आजीवन शूद्र जल त्याग और 5 वर्ष का ब्रह्मचर्य व्रत लिया। जनवरी 1968 बागीदौरा राजस्थान में आचार्य श्री विमल सागर जी महाराज से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार किया ।ग्राम करावली में सर्व प्रथम आचार्य श्री शिव सागर जी के दर्शन किये । सनावद वासियो के साथ श्री गिरनार जी एवम बुंदेलखंड की तीर्थ यात्रा कर। बालक यशवंत वापस सनावद आ गए । सन 1968 को श्री यशवंत पुनः ग्राम पालोदा में आचार्य श्री शिव सागर जी के दर्शन हेतु गए। गृह त्याग
मई 1968 से आप संध में शामिल हो गए । भीमपुर जिला डूंगरपुर में आपने द्वियतीय पट्टाधिश आचार्य श्री शिव सागर जी महाराज से गृह त्याग का नियम लिया । बाल ब्रह्मचारी श्री यशवंत जी ने मात्र 18 वर्ष की उम्र में फागुन कृष्णा चतुर्दशी संवत 2025 सन 1969 को श्री महावीर जी मे आचार्य श्री शिव सागर जी महाराज को मुनि दीक्षा हेतु श्रीफल चढ़ा कर निवेदन किया। तृतीय पट्टाधिश नूतन आचार्य श्री धर्म सागर जी महाराज ने श्री महावीर जी मे फागुन शुक्ला 8 संवत 2025 24 फरवरी 1969 को 6 मुनि 3 आर्यिका तथा 2 क्षुल्लक कुल 11 दीक्षाएं आपके सहित दी और अब ब्रह्मचारी श्री यशवन्त मुनि दीक्षा धारण कर मुनि श्री 108 वर्धमान सागर जी महाराज बन गए ।

जब नव दीक्षित वर्धमान सागर जी नेत्र ज्योति चली गई …

ज्येष्ठ शुक्ला 5 पंचमी संवत 2025 सन 1969 को अनायास नव दीक्षित मुनि श्री वर्धमान सागर जी महाराज की नेत्रों की रोशनी चली जाती है उस समय उम्र मात्र 19 वर्ष की उसी समय डॉक्टर बुलाये गए अगले दिन डॉक्टरों ने नेत्रों का परीक्षण किया। डॉक्टरों ने परामर्श दिया कि बिना इंजेक्शन लगाए नेत्र ज्योति आना नामुमकिन है । संघ में विचार विमर्श होने लगा कि मात्र 19 वर्ष की उम्र में इतना उपसर्ग क्या किया जावे
दीक्षा छेद कर डॉक्टरी इलाज कराने की भी चर्चा चली ।

लेकिन मुनि श्री वर्धमान सागर जी महाराज का संकल्प दोहराया कि वे इंजेक्शन नहीं लगवाएँगे । प्रसंग आने पर समाधि ही ले लेंगे । मुनि श्री वर्धमान सागर जी महाराज ने 1008 श्री चंद्र प्रभु की वेदी पर मस्तक रख कर पूज्य पाद रचित श्री शांति भक्ति का पाठ स्तुति प्रारम्भ की। लगातार 3 दिन अर्थात 72 घण्टे बाद प्रभु भक्ति के प्रभाव से बिना डॉक्टरी इलाज के नेत्र ज्योति वापस आ जाती है । उस घटना के समय आचार्य श्री धर्म सागर जी सहित 17 मुनि 25 आर्यिकाये 4 क्षुल्लक एवम 1 क्षुल्लिका सहित 47 साधु विराजित थे।
 परमपूज्य आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी जी आकाश गमनी विद्या से आकाश में गमन कर रहे थे सूर्य की प्रचंड तेज रोशनी से आचार्य श्री की नेत्र ज्योति जाने पर श्री पूज्य पाद स्वामी ने श्री शांति भक्ति की रचना कर नेत्र ज्योति वापस पाई थी ।
उसी पवित्र शांति भक्ति के पाठ से परम पूज्य मुनि श्री वर्धमान सागर जी महाराज की नेत्र ज्योति वापस आई । इन पवित्र नेत्रों से जब गुरुदेव का वात्सल्य मयी आशीर्वाद मिलता है तो भक्तों का मानव जीवन सफल हो जाता है।

वर्धमान सागर जी का मुनि से आचार्य श्री बनने का सफ़र

आचार्य पद चारित्र चक्रवती प्रथमचार्य श्री 108 शांति सागर जी महाराज की अक्षुण्ण पट्टपरम्परा के चतुर्थ पट्टाचार्य श्री 108 अजित सागर जी महाराज के पत्र के माध्यम से लिखित आदेश से पारसोला राजस्थान में २४ जून १९९० आषाढ़ सुदी दूज को गुरु आदेशानुसार आचार्य श्री के पद पर विराजित किया गया ।

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