सारांश
पंचकल्याणक का धार्मिक विधान शास्त्रों में किस रूप में लिखा गया है, क्या प्रक्रियाएं होती है और किस तरह से शास्त्र सम्मत संपन्न किया जाना चाहिए । इस पर श्रीफल जैन न्यूज़ के आमंत्रण पर पढ़िए ब्रम्हचारी जय निशांत का आलेख.
पंच कल्याणक का उद्देश्य यह है कि जिन भगवान की प्रतिष्ठा करना चाहते हैं। उन भगवान की प्रतिमा बनाने के पूर्व पाषाण का शोधन होना चाहिए । पात्रों की शुद्धि होनी चाहिए । इंद्रों की प्रतिष्ठा संयम के अनुसार करते थे । आज वर्तमान में अर्थ प्रधान हो गई पूरी व्यवस्था. पात्रों का सही चयन नहीं कर पाते हैं । माता पिता, आहार दाता बिना संयम शोधन से बन रहे हैं. ये सभी पात्र संयमित होने चाहिए ।
मंत्र के जानकार हों प्रतिष्ठाचार्य
प्रतिष्ठाचार्य मंत्र शास्त्र के जानकार हों । वर्तमान में केवल शाब्दिक क्रिया हो रही हैं, भावनात्मक क्रियाएं नहीं हो रही हैं । प्रतिष्ठा में प्रतिमा को संस्कारित किया जाता है । इसमें तीन चीजें मुख्य हैं पहला मंत्र, दूसरा यंत्र, तीसरा तंत्र।सभी मंत्रों की १०८ जाप विधिवत होनी चाहिए ।
यंत्र के साथ मंत्र भी क्रियाएँ अनिवार्य
यंत्र के साथ मंत्र की क्रियाएं होनी चाहिए । मात्रिका यंत्र, सुरेन्द्र यंत्र, वर्धमान यंत्र, बोधी-समाधि, नयनोंमीलन, सिद्धचक्र यंत्र , मोक्षमार्ग यंत्र, निर्वाणसंपत्ति यंत्र, जलमंडल यंत्र, अग्निमंडल यंत्र, आकाशमंडल यंत्र का प्रयोग होता है । ये सभी यंत्र प्रतिमा की प्रतिष्ठा में प्रयोग होते हैं ।
तंत्र क्रिया में ये होता है विशेष
जल से शोधन, विभिन्न प्रकार के क्वाथ.काढ़े होते हैं । पंच छल्ल क्वाथ, पंच फल क्वाथ, सर्वोषधि क्वाथ, धूली कलश क्वाथ से बिम्ब शुद्धि , उवटन, केशर के माध्यम से गर्भ शोधन एवम गभ संस्कार प्रत्येक तींथकर का गर्भावतरण, अलग-अलग होना चाहिए । कुछ लोग एक साथ एक वस्त्र में कर देते हैं ।
जानिए क्या होता है जात कर्म में
रूचकवर द्वीप की 40 कन्याएँ आकर क्रिया संपन्न करती हैं । इसी क्रिया के बाद शचि प्रसूति गृह में आती हैं . पांडूकशिला पर सौधर्म के साथ पहुंची हैं । पांडूकशिला पर 1008 कलशों से 1008 गुणों का आरोपण करते हैं । सहस्त्रनाम पाठ करते हुए एक हजार गणों का आरोपण होता है । अमृत स्थापन होता है । तीर्थँकर बालक कभी भी मां के दूध पर निर्भर नहीं होते हैं । अमृत चूस कर बड़े होते हैं ।यहां मध्यलोक की कोई चीज ग्रहण नहीं करते हैं । भोगों की सारी सामग्री स्वर्ग से सौधर्म लेकर आता है । तीर्थकंर के साथ बाल क्रीडा करने भी देव आते हैं ।
ऐसे होते हैं तीर्थंकर
तीर्थंकर किसी के सामने झुकते नहीं, किसी को नमस्कार नहीं करते . देव या साधु दर्शन नहीं करते हैं । स्वयं बुद्ध होते हैं । ज्ञान से विदेह क्षेत्र की रचना अनुसार नगर की संयोजना करते हैं । और अपने पुत्रों को शिक्षा देते हैं । अन्य गुणों को भी सीखाते हैं । दीक्षा धारण करते हैं । दीक्षा विधि में भी संस्कारों की अलगअलग व्यवस्थाएं हैं पिच्छी कमंडल देते हैं । अंग न्यास करते हैं संस्कार रोपण करते हैं । दीक्षा क्रिया ऐसे संपन्न होती है। आहार का कोई विधान शास्त्रों में नहीं है।
ऐसे होती है दीक्षा प्रक्रिया
दीक्षा के बाद गुणस्थान का आरोहण करते हैं. केवल ज्ञान क्रिया में इसकी पूरी विधि है । अधिवासना में कई चीजें हैं । जैसे पंचवाण स्थापित करना, यवमाला मदन फल स्थापित करना, पंच वर्ण चूर्ण स्थापित करना, नयनोन्मिलन काजल से करते है इसका प्रमाण नहीं मिलता । इसका द्रव्य अलग से बनाते हैं इसके बाद सूर्य कला, चन्द्र कला, प्राण प्रतिष्ठा एवं सू्री मंत्र द्वारा केवलज्ञानोत्पत्ति करते हैं फिर समोशरण रचना के बाद पूजा होती है ।
अंत में निर्वाण कल्याणक में संस्कार आरोपण है । गजरथ होता है बुंदेलखंड में वह चल जिनालय का प्रतीक है । हवन और आहुति होती हैं । पांच दिन में दो लाख जाप हो जाते हैं । यागमंडल विधान में, त्रिकाल चौबिसी, विद्यमान तीर्थंकर और आचार्य ,उपाध्याय परमेष्ठी, साधु परमेष्ठी, आदि की उपासना को कहा गया है । अन्य शास्त्रों में देवी, यक्षिणी ,माता इत्यादि की पूजा होती है । प्रतिष्ठा तिलक, प्रतिष्ठासरोदधार जयसेन स्वामी प्रतिष्ठा पाठ के अनुसार अष्टकुमारियां ऋतुस्त्राव से पहले की होती हैं । अष्टद्रव्य – रजत द्रव्य – चांदी के फूल, स्वर्ण पुष्प, उवटन द्रव्य प्रयुक्त होते हैं।
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