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ज्ञान की बात आपके साथ: जानिए, भगवान ऋषभदेव आदियुग के प्रथम तीर्थंकर का जीवन चरित


सारांश

भगवान ऋषभदेव आदियुग के प्रथम तीर्थंकर हैं । जैन धर्म के इस काल के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव माने जाते हैं । भगवान ऋषभदेव को कई नामों से याद किया जाता है । आज पढ़िए ज्ञान की बात आपके साथ में चंद्रप्रकाश डागरिया,धरियावद के स्वाध्याय का अंश ।


भगवान ऋषभदेव की ब्रम्हा,महादेव,आदिनाथ, आदिदेव,कैलाशपति,मरु देवी नंदन, नाभीनंदन, ऋषभदेव आदि अनेक नाम से आराधना की जाती है । भगवान ऋषभदेव का जन्म नवमीं में अयोध्या तीर्थ में राजा नाभिराय के यहां मरुदेवी माता से हुआ था । भगवान ऋषभदेव के 100 पुत्र थे जिनमें प्रथम भगवान से पहले मोक्ष प्राप्त करने वाले अनंतवीर्य थे । जिसमें ऋषभदेव को अपने साम्राज्य का भोग भोगने के समय नृत्यांगना निलांजना का नृत्य करते समय अकाल मौत हो जाने से वैराग्य हो गया ।

राजसी वैभव छोड़ परम तपस्वी बनें
भगवान ने उसी समय संसार का मोह छोड़ सारा साम्राज्य अपने बेटे बाहुबली और भरत में विभाजित करने के बाद वन में कठोर तपस्या के लिए निकल गए । भगवान को वन में जाते देख कर नगर वासी एवं सेवक भी भगवान के साथ तपस्या करने ने वस्त्र हटाकर 12 माह तक कठोर तपस्या की और फिर भी भगवान को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई । भगवान को छह महीने आहार नहीं मिला ।

आहार विधि का ज्ञान श्रावकों को नहीं होने के कारण .उसके पश्चात राजा श्रेयांस द्वारा हस्तिनापुर नगरी में अक्षय तृतीया को इक्षु रस का आहार हुआ । इसीलिए आज भी उत्तर प्रदेश के मेरठ, हस्तिनापुर और आस-पास के क्षेत्रों में गन्ने का सबसे अधिक उत्पादन होता है । भगवान के दो पुत्रियां ब्राम्ही एवं सुंदरी थी । जिनको भगवान ने कृषि, एवं अक्षर ज्ञान गणित का पाठ पढ़ाया । दोनों पुत्रियों ने दीक्षा धारण कर आर्यिका बनना स्वीकार किया ।

कथा भगवान ऋषभदेव के मोक्ष निर्वाण की

भगवान ञषभदेव को माध वृष चतुर्दर्शी को कैलाश पर्वत पर दस हजार मुनि सहित मोक्ष निर्वाण हुआ । भगवान ऋषभदेव के दो विवाह हुए थे । जिसमें प्रथम पत्नी का नाम सुमंगला एवं दूसरी पत्नी का नाम सुनंदा था। प्रथम पत्नी से भगवान को 99 पुत्र हुए जिसमें सम्राट भरत चक्रवर्ती थे । द्वितीय पत्नी से भगवान को एक पुत्र बाहुबली स्वामी हुए जो कठोर तपस्या कर भगवान से पूर्व ही मोक्ष को पधारे । भगवान के पुत्र सम्राट भरत चक्रवर्ती के कारण ही हमारे देश का नाम भारत हुआ । भगवान ने वैराग्य से पूर्व अयोध्या का राज्य भरत को और पोदनपुर का राज्य बाहुबली में बांट दिया था । किन्तु दोनों पुत्रों में पोदनपुर राज्य के लिए भीषण युद्ध हुआ जिसमें बाहुबली विजयी हुए ।

भरत को परास्त करने के बाद, बाहुबली को बड़े भ्राता के हार जाने के बाद ग्लानि उत्पन्न हुई और संसार में होने वाली समस्त क्रियाओं से वैराग्य हो गया कि राज्य के लिए भाई को हराना सबसे बड़ा कारण रहा । उसी समय भगवान बाहुबली ने कठोर तपस्या कर केवल्य ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त हुए । भगवान ऋषभदेव के सभी पुत्री व पुत्र कर्म पाठ कर निर्वाण गए। एक समय राजा नामीराम द्वारा खेत में हल चलाने के लिए समय बैल द्वारा धान खाने के कारण ऋषभदेव द्वारा उनका मुंह बांध दिया गया था, उसी पाप के कारण भगवान को छह माह तक आहार नहीं मिला । अत: भगवान ऋषभदेव का प्रतीक चिन्ह भी बैल है ।

प्रजा को प्रथम ज्ञान देने के कारण उनको आदि ब्रम्हा कहा गया । प्रजा को सबक सिखाने के लिेए उन्होने न्याय प्रणाली की शुरुआत भी की थी । इसीलिए उन्हें प्रजापति कहा गया । भगवान ऋषभदेव क्षत्रिय वंश से थे जिनका इश्वाकू वंश था । भगवान के शरीर का स्वर्ण रंग था,जो सोने से भी ज्यादा चमकता था । भगवान ऋषभदेव की तपस्या इतनी कठोर थी कि उनकी बाल की जटाएं भी शरीर तक पहुंच गई थी । इसी कारण उन्हें जटाधारी भी कहा गया । भगवान का शरीर बहुत विशाल काय था । 4920 फीद 500 धनुष के बराबर था । इतना विशाल शरीर होने के कारण भगवान को वटवृक्ष भी कहा जाता है ।

इसीलिए भगवान को वटवृक्ष के नीचे ही केवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ था । भगवान ने असि, मसी,कृषि, विद्या, वाणिज्य,शिल्प कला का ज्ञान सिखाया । भगवान ऋषभदेव, अनंत गुणों के भंडार हैं। इसकी महिमा का वर्णन हम कदापि नहीं कर सकते । भगवान के नाम मात्र के स्मरण से ही सारे पाप कष्ट मिट जाते हैं । ऐसे महादेव को गुणों का गुणगान करते-करते हमारी कलम समाप्त हो जानी है पर भगवान की महिमा का मंडन हम नहीं कर सकते । इसी महिमा मंडन करते-करते मानतुंगाचार्य स्वामी को राजा-भोज द्वारा 48 तालों में बंद करने पर डट गए ।

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