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प्रपंच का जीवन जीने वाले होते हैं दुखी भीषण ठंड में मौन वाणी में प्रसन्न सागर जी का कथन


सारांश

 

सिंह निष्क्रिय व्रत करने वाले पूज्य अन्तर्मना आचार्य श्री 108 प्रसन्न सागर जी महामुनिराज आठ महीने से पर्वतराज पर मौन साधना और एकांत में रह रहे हैं। उन्होंने स्वर्णभद्र कूट में गुरुवार को इस विषम ठंड में अपनी मौनवाणी से जीवन को धन्य बनाने वाली बातें कही हैं। इसे संकलित किया है मीडिया प्रभारी जैन राज कुमार अजमेरा कोडरमा ने।  


कोडरमा। जैन धर्म के सबसे बड़े तपस्वी भगवान महावीर के बाद तपस्या सिंह निष्क्रिय व्रत करने वाले पूज्य अन्तर्मना आचार्य श्री 108 प्रसन्न सागर जी महामुनिराज ने मौनवाणी में कहा है-

*जिन्दगी में शान्ति तब आयेगी, जब मन की भागदौड़ हमारे वश में होगी।

*मन की दो प्रवृत्तियां हैं — एक शुभ प्रवृत्ति, दूसरी अशुभ प्रवृत्ति। शुभ प्रवृत्ति- सद्गुणों से प्रेरित होकर जीवन को संवारती है, और अशुभ प्रवृत्ति – दुर्गुणों को निमन्त्रण देकर जीवन को तबाह करती है।

*मनुष्य का मन बहुत बेईमान है, अशुभ कार्य क्रिया में उत्साह से भाग लेता है और शुभ कार्यक्रियाओं से मन भाग लेता है। मनुष्य का मन सोया हुआ है। उसे जगाने के लिये ही धर्म, मन्दिर, मस्जिद, गिरजा और सत्संग का प्रावधान है।

* जीवन एक कर्मभूमि है, उसका उचित-अनुचित फल सबको भोगना ही पड़ता है। इसलिए जीवन को जो सहज, सरल और शिशु बत होकर जीते हैं, वे जीवन का आनंद सुख भोग लेते हैं, और जो छल कपट माया प्रपंच का जीवन जीते हैं, वे जीते जी दुखी और मरने के बाद दुःख ही दुःख भोगते हैं।

*परमात्मा के यहां देर है, अन्धेर नहीं। इसलिए मनुष्य को 24 घंटों में 30 मिनट धर्मग्रंथों का वाचन करना चाहिए। धर्मग्रन्थों के वाचन से अज्ञान दूर होता है, दिशा बोध मिलती है, जीवन की अनेक समस्याओं का समाधान मिलता है, तनावग्रस्त जीवन को जीने का प्रबंधन मिलता है।

*धर्मग्रंथ मनुष्य जीवन को सत्य का मार्ग चुनने की राह देता है। धर्मग्रंथों में केवल उपदेश मात्र नहीं, अपितु वह सही निर्णय लेने का हौसला भी बुलन्द करता है और जीवन के सभी भय, भ्रम, अज्ञान व अल्पता का भंजन और अन्तःकरण की समस्याओं का चिरस्थाई समाधान भी करता है। *लेकिन विडम्बना यह है कि लोग धर्मग्रंथों का वाचन खुद को सुधारने के लिए नहीं, बल्कि दूसरों को सुधारने के लिए करते हैं। यही कारण है कि आज समाज और देश में बातों के बादशाह तो बहुत है लेकिन आचरण के आचार्य देखने सुनने और जानने को नहीं मिलते हैं।

*सौ बात की एक बात – एकान्त में हम जो व्यवहार स्वयं के साथ करते हैं, समझना वही सच्चा धर्म और ग्रन्थ वाचन का फल है…।

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