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आदिनाथ भगवान मोक्ष कल्याणक पर श्रीफल जैन न्यूज़ की आदिनाथ मंदिरों पर विशेष सीरीज़: आदिनाथ की ऐसी मूर्ति के दर्शन कीजिए, जिसे देखकर लगे कि बोल रहे हैं स्वयं भगवान

कोटा जंक्शन पर रूकती ट्रेन से महज़ आठ किलोमीटर दूर जाएंगे तो आपको चांदखेड़ी में जैन मंदिर के भव्य दर्शन हो जाएँगे । रूपाली नदी के किनारे बसा चांदखेड़ी वैसे तो एक छोटा इलाक़ा है लेकिन भगवान आदिनाथ की जीवंत मूर्ति को देखने देश-दुनिया से यहां लोग आते हैं । भगवान आदिनाथ के मोक्ष कल्याणक पर पढ़िए विस्तार से अतिशय क्षेत्र चाँदखेड़ी में बने मंदिर की कहानी ….

चाँदखेड़ी में जैन पंरपरा की सदियों पुरानी निशानियां है । इस मंदिर के मूल गर्भगृह में एक विशाल तल का हिस्सा है जिसमें भगवान आदिनाथ की लाल पाषाण की पद्मासनावस्था की प्रतिमा है ।ये प्रतिमा, इतनी अनुपम है कि ऐसा लगता है कि अभी ही ये बोल पड़ेगी । मनोज्ञा मूर्ति ,श्रवणबेलगोला के बाहुबली की प्रतिमा के उपरान्त  यह भारत की दूसरी प्रतिमा है।कहते हैं कि यह मुख्य प्रतिमा इस क्षेत्र से 6 मील दूर बारहा पाटी पर्वतमाला के एक हिस्से में बरसों से दबी हुई थी। कोटा राज्य के तत्कालीन दीवान, सागोंद निवासी किशनदास मड़िया बघेरवाल को एक रात स्वप्न में बारहापाटी से प्रतिमा निकालने का संकेत मिला। तदनुरूप प्रतिमा बैलगाडी में रखकर सांगोद लाई जा रही थी कि मार्ग में रूपाली नदी पर हाथ-मुँह धोने के लिए गाड़ीवान ने बैलगाड़ी रोकी। कुछ समय बाद बैल जोतकर गाड़ी चलाने का उपक्रम किया गया तो गाड़ी एक इंच भी न सरककर वहीं स्थिर हो गई। गाड़ी को खींचने के लिए कई बैलों का बल प्रयोग किया गया परन्तु वह निष्फल रहा। अत: नदी के पश्चिमी भू-भाग पर ही उक्त मन्दिर का निर्माण करवाया गया।


मुग़लों के काल में भी शान से काम हुआ था चांदखेड़ी मंदिर का, जानिए क्यों ?

बादशाह औरंगजेब ने अपने अधिकृत साम्राज्य में मन्दिर बनवाने की सख्त मनाही करवा रखी थी। उसने सैंकड़ों देवालयों को ध्वस्त करवा दिया था और जिन लोगों ने नये मन्दिर बनवाने का प्रयास किया उन पर अत्याचार किये जाते थे | ऐसे में चाँदखेड़ी में मन्दिर बनाने की खबर औरंगजेब जैसे बादशाह से कैसे छिपी रह सकती थी ? परन्तु उस समय वह भारत के दक्षिणी प्रदेश के युद्धों में उलझा हुआ था । इसके अलावा उसी समय कोटा के महाराव किशोर सिंह हाड़ा तन-मन से औरंगजेब के साथ थे। इसी कारण से उसने चांदखेड़ी के निर्माणधीन मन्दिर की ओर ध्यान नहीं दिया। इसके पूर्व में भी कोटा के हाड़ा राजपूत शासकों ने अकबर, जहांगीर शाहजहाँ व औरंगजेब जैसे शासकों के पक्ष में अपनी जान जोखिम में डालकर अनेक युद्ध किये थे।

इस कारण मुगल बादशाह कोटा के हाड़ा शासकों से काफी प्रभावित थे और उन्हें महत्वपूर्ण पद प्रदान किये थे। लेकिन फिर भी अजमेर का सूबेदार बार-बार अपने अहदियों को कोटा राज्य में भेजकर ताकीद किया करता था कि ‘‘मन्दिर बनवाना बंद किया जाये’’| इस कारण किशनदास मड़िया को रह-रह कर यह भय सताता रहता था कि किसी दिन वह मन्दिर न तुड़वा दे। इसलिए उन्होंने मूल मन्दिर को गोपनीय ढंग से जमीन के अन्दर भू-गर्भ में ही बनवाया। इतना ही नहीं तो इसके किलेनुमा अहाता की बाहरी बनावट भी मस्जिदाकार रखी | उस समय मुस्लिम आक्रमणकारियों से बचाव का यह अनूठा प्रयास था, जिससे वे इसे मस्जिद समझकर ध्यान न दें ।


ऐसी विलक्षण हैं इस मंदिर की कलात्मकता

अहाते के मध्य समवशरण महावीर स्वामी के ‘केवल्य-ज्ञान’ की प्राप्ति के स्वरूप का मन्दिर है। इसमें आध्यात्मिकता के साथ प्रतिमा कला का भी सुन्दर अनुपम संगम है। इसकी प्रतिष्ठा आचार्य देशभूषण जी महाराज के सान्निध्य में सम्पन्न हुई थी। इस मन्दिर में 8 फीट ऊँचा संगमरमर का सुन्दर मानस्तम्भ है जिसके शीर्ष पर भगवान महावीर की तपस्या भाव की चर्तुमुखी प्रतिमा है। इसके नीचे भगवान महावीर की माता के सोलह स्वप्नों का अनुपम स्वप्न कथा संसार निर्मित है।

इस मंदिर की विशेषता यह है कि समवशरण के बाद के अहाते में यात्रियों को ठहरने के दर्जनों सुविधायुक्त हवादार कक्ष बने हुये हैं। इसी अहाते के मध्य यह विचित्र जैन मन्दिर बना हुआ है। इसके चारों कोने पर चार छत्रियां बनी हुई है। मन्दिर के मुख्य द्वारा पर एक चौखुटा व 10 फीट ऊँचा कीर्तिस्तम्भ है इसमें चारों ओर दिगम्बर तीर्थंकरों की सुन्दर मूर्तियाँ बनी हुई हैं। मध्य में एक ऊँचा अभिलेख है। इसमें संवत् 1746 की माघ शुक्ला को यहाँ पंचकल्याणक कराने का उल्लेख है। एक लेख में आमेर गादी के भट्टारक स्वामी जगत कीर्ति का पूरा लेख उत्काण्र् है। द्वितीय लेख भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति का है। मुख्य द्वारा के बाद मन्दिर का अंत:भाग आता है। जो सचमुच में मन्दिर का मूल-भाग प्रतीत होता है। परन्तु ऐसा नहीं है और यह भूल-भूलैया ही इस मन्दिर की विचित्र निर्माण शैली है। मूलत: इस भाग में पंच-वेदियां एवं एक गन्धकुटी बनी हुई है। वेदियों में 24 तीर्थंकरों की मूर्तियाँ स्थापित हैं। मूल गंधकुटी में सुपाश्र्वनाथ स्वामी की पद्मासन प्रतिमा है। ये सभी एक चौकोर बरामदे में स्थापित है।

इसी बरामदे में तीन वेदियाँ गर्भ ग्रह में हैं इसमें प्रथम वेदी में 3 पाषाण प्रतिमाएँ , द्वितीय में बाहुबली की 5 फीट की खड्गासन प्रतिमा है। जो कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं। तीसरी और अन्तिम वेदी में आठ जैन प्रतिमाएँ है। इसी गर्भगृह के दाँयी ओर एक गुप्त मार्ग बना हुआ है जो मुख्य गर्भगृह को जाता है इसे ‘तल-प्रकोष्ठ’ कहा जाता है। यह प्रकोष्ठ ऊपर से 25 फीट नीचे भू-गर्भ में है। इस गर्भगृह में उतरनें पर बाँयी ओर की दीवार में चतर्मुखी चव्रेश्वरी देवी की सुन्दर प्रतिमा है जबकि सामने की दीवार पर चतुर्मुखी अंबिका की प्रतिमा है। गर्भ गृह के बाँयी ओर एक अन्य जैन खड्गासन प्रतिमा है। गर्भ-गृह के बाँयी ओर के निकट एक फलक में 55 जैन प्रतिमाएँ दोनों ओर ध्यानासनों में प्रतिष्ठित हैं। इसी के मध्य मूल रूप तीर्थंकर महावीर स्वामी की अत्यन्त कलापूर्ण एवम् मनोज्ञ-प्रतिमा प्रतिष्ठित है।

मुख्य गर्भगृह में एक विशाल वेदी पर मूल नायक भगवान आदिनाथ (ऋषभदेव) की लाल पाषाण की पद्मासनावस्था तथा पद्मांजलि मुद्रा की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। इस अनुपम प्रतिमा के अधखुले नेत्रों एवं धनुषाकार भौहों का अंकन अत्यन्त मन-मोहक है। प्रतिमा के वक्ष पर ‘श्रीवत्स’ है एवं हाथ-पैरों में पदम बने हुए हैं। इसके दक्षिण पाद पर एकलेख भी उत्कीर्ण है।

जिस पर विक्रम संवत् 1746 वर्षे माघ सुदी 6 सोमवार को मूलसंघ भट्टारक स्वामी जगतकीर्ति द्वारा (खींचीवाड़ा में) चाँदखेड़ी के नेतृत्व में महाराव किशोर सिंह के राज्य में बघेरलाल वंशी भूपति संघवी किशनदास बघेरवाल द्वारा जिनबिम्ब प्रतिष्ठा कराई जाना अंकित है। यह प्रतिमा 6.25 फीट ऊूंची एवं 5 फीट चौड़ी है। इसके दर्शन करते ही मन में अपूर्व वीतरागता और भक्ति शांति के भाव उत्पन्न होते हैं। प्रतिमा का निर्माण काल अंकित नहीं है। मन्दिर के वाम स्थल पर एक अंकन लेख व प्रतिमा पर संवत् 512 अंकित है, परन्तु उसका मूल आधार अभी तक ज्ञात नहीं हो पाया है। हालांकि यह क्षेत्र अतिशयक्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध है।


चांदखेड़ी का वही धार्मिक महत्व जैसा काशी,अयोध्या का है

चांदखेड़ी को 18 वीं सदी में देश भर में वही स्थान प्राप्त था जो प्राचीन काल में अयोध्या, मथुरा श्रावस्ती और शत्रुंजय जैसे पवित्र स्थानों को था। सारत: चांदखेड़ी के इस भव्य और औरंगजेब कालीन विचित्र जैन मन्दिर में जैन धर्म के सारे आयोजन बड़ी धूमधाम से मनाये जाते हैं। देश के सुदूर राज्यों से जैन धर्म के सैकड़ों परिवार एवं अब पर्यटक भी यहाँ आने लगे हैं। वे इस मन्दिर की विचित्र निर्माण शैली और सुन्दर प्रतिमा के दर्शन कर अपनी धार्मिक यात्रा और पर्यटन को पूर्ण करते हैं। इस मन्दिर में करीब 546 जिनबिम्ब प्रतिष्ठित है। वर्तमान में मन्दिर में अनेक प्रकार के नवीन कार्य चल रहे हैं जिनसे यह मन्दिर और भी सुन्दर हो गया है।

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