जैन और आदिवासी कभी अपने आराध्यों को लेकर आपस में नहीं उलझ सकते। भारत के सभी आदिवासी,आदिदेव आदि तीर्थंकर आदिनाथ प्रभु के ही उपासक हैं और आदिकाल से ही श्रमण संस्कृति के प्राण और वाहक रहे हैं।
पढ़िए जोधपुर से सोहन मेहता का तथ्य परख आलेख …जिसे हम तक पहुँचाया है हमारे सहयोगी राजेश जैन द्ददू ने ….
जिस पर हमारा पवित्र सम्मेद शिखर अवस्थित है वो पारसनाथ का पहाड़ी क्षेत्र आज से नहीं बल्कि सदियों से जैन और आदिवासियों के सह-अस्तित्व की कहानी कहता आया है।
जिस तीर्थ पहाड़ी को जैन जगत पार्श्वनाथ पहाड़ी कहते हैं,उसे आदिवासी भी पार्श्वनाथ को मराँग गुरु मानकर पूजता हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान पार्श्वनाथ का जितना प्रभाव जैनों पर था, उससे कहीं अधिक आदिवासियों पर भी था.
एक ऐसा युग भी था जब जैन अपने चौबीस तीर्थंकरों में पार्श्वनाथ को भी अन्य तीर्थंकरों के साथ आराध्य व पूज्य मानते थे मगर आदिवासी तो सिर्फ़ तीर्थंकर पार्श्वनाथ को ही अपना सबसे बड़ा आराध्य मानते व सर्वाधिक पूज्य समझते थे। सराक आदिवासियों पर लिखे गए सारे ग्रन्थ व किताबें इनके सर्वाधिक महत्वपूर्ण दस्तावेज व मौलिक साक्ष्य के प्रमाण हैं
। गिरी व आदिवासियों के सबसे चहेते नेता, राज्यपाल व राष्ट्रीय मण्डल आयोग के पहले राष्ट्रीय अध्यक्ष व अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण के सूत्रधार बिहार के महानतम नेता स्व० धनिकलाल मंडल की इसी पर अनेकों पुस्तकें व प्रख्यात राष्ट्रीय व विश्व के अंतर्रराष्ट्रीय अख़बारों में लेख छपे हुए हैं। वे सार्वजनिक मंचों से अपने को सबसे बड़ा जैन धर्मी मानते थे।
स्व० श्री पारस मलजी भंसाली के अध्यक्षीय कार्यकाल में वे नाकोड़ा तीर्थ दर्शन करने आए थे ।उस समय उन्होंने कहा आपने हम मूल आदिवासी जैनों को भूला दिया हैं,सारे आदिवासी जो कभी जैन धर्मी थे वो अन्य धर्मों में भाग रहे हैं
यह व्यथा मैने दो बड़े दिगम्बर आचार्यों से भी कहीं कि जिनके पुरखें जैनी थे वे विधर्मी हो रहे हैं,उन्हें फिर से जैन धर्मी बनाओ.अब भी कह रहा हूँ कि नाकोड़ा का तीर्थ मंडल इन आदिवासियों को अपने साथ जोड़ें व उन्हें उनके पुरखों की जिनत्ववादी सोच व मूल्यों की विरासत को फिर से उनमे जीवन्त व जीवट बनाएं।
उन्होंने कहा कि हक़ीक़त में आदिवासी संस्कृति जैन संस्कृति से फली-फूली व अनुप्राणित रही हैं, इसके असली जन्मदाता आदि तीर्थंकर आदिनाथ महाप्रभु ही रहे हैं.आज भी आदिवासियों में अनेकों वर्ग हैं ज़ो मांस नही खाते। बलि प्रथा में विश्वास नही करते, पानी छानकर पीते हैं। रात्रि भोजन नही करते,सब्ज़ी तक को काटकर नही पकाते हैं। पैडों,पौधों,वनों व जंगलों को कटने नही देते बल्कि इन सबको व प्रकृति को पूजते व बचाते हैं।
आदिवासियों की यह जीवन पद्धति व उपासना जैन धर्म व अध्यात्म का ही अभिन्न अंग हैं। मंडलजी के कहे अनुसार मुझ जैसे अदने से लेखक का भी स्पष्ट मत हैं कि ये सारी बातें आदिवासियों की जीवन व समाज व्यवस्था में आज भी विद्यमान हैं.
पार्श्वनाथ की पहाड़ी के मालिकाना हक़ या किसी की पूजा पद्धति को लेकर जैनों का इन तमाम आदिवासियों से कभी न संघर्ष था न विवाद था,न कोई संकट था न हैं न रहेगा.जैनों ने ज़ो लड़ाई छेड़ी वो समूचे पहाड़ बचाने की है।
दोनों के धार्मिक व्यवस्था की पवित्रता व पावनता को बचाने की तथा पर्यटन के नाम पर समूचे पहाड़ को हड़पने से बचाने की हैं। यह लड़ाई सरकार से हैं किसी वर्ग, जाति व आदिवासियों से नही हैं। मग़र जैनों व आदिवासियों को लड़ाकर जो स्वार्थी राजनैतिक षड्यंत्र परवान चढ़ाया जा रहा हैं,वो आज नही तो कल पंचर व फेल हो जाएगा।
हम जैनियों को नियोजित तरीक़े से दोषी व अपराधी ठहराना का एक बेईमानी से भरा षड्यंत्रकारी राजनैतिक एजेंडा बनाकर हमें बलि का बकरा ज़ो बनाना चाहते हैं । हम जैनी, उनके इन ज़हरीले मनसूबों से भी बुद्धिमता से निपटेंगे और धमकियों को हम अपनी चतुराई व बुद्धि कौशल से परास्त करेंगे।
मगर अपनी ओर से किसी का कोई तनिक भी अहित नही करेंगे। अहिंसा,करुणा,विनय,मैत्री,विवेक, भाईचारा व समरसता का रास्ता कभी नही छोड़ेंगे। जैन जगत तो हमेशा से आदिवासियों के रोज़गार व आर्थिक सहयोग का सम्बल रहा हैं और रहेगा. बेवजह वे दूसरों के बहकावे में न आएं। आदिवासियों ने अपने हित की असल में समझदारी व होशियारी रखी तो भविष्य में भी जैन समाज उनके हर प्रकार के सहयोग व उत्थान में भागीदार बना रहेगा । वो हमारी आस्था के लिए एक कदम भी आगे बढ़ेंगे तो जैन जगत उनके हित में हज़ार कदम आगे बढ़ायेगा……………………………!
( लेखक – सोहन मेहता क्रांति, जोधपुर से हैं और आप कवि,विश्लेषक और पत्रकार हैं )
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