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सुख और दुःख जीवन का हिस्सा हैं। न तो सुख स्थाई है और ना दुःख स्थाई है, लेकिन प्रतिकूल स्थितियों में भी आनंद खोजना, दुःख को सुख में परिवर्तित करना या दुःख में सुख का अनुभव करना, दुःख के कारणों से बचना और जीवन में प्रविष्ट हुए अशुभ कर्मों को दूर करना, इन सबके लिए सभी धर्म ग्रंथों में एक ही स्वर में कहा गया है कि जीवन में धर्म को स्थान दिया जाए।
धर्म के अनुकूल आचरण का पालन किया जाए, ताकि विपरीत समय में भी जीवन सुगम और आनंद से भरपूर रहे।
आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है-
देशयामि समीचीनम् धर्मं कर्म निबर्हणम्।
संसार दुःखतः सत्यवान् यो धरत्युत्तमे सुखे।।2।।
अर्थात-कर्मों का नाश करने वाले उस धर्म का उपदेश करता हूं जो जीवन को संसार के दुखों से मुक्त कर उत्तम सुखों में परिवर्तित करता है।
संसार में जन्म लेने वाला प्राणी किसी ना किसी दुःख से दुखी है ही। यह दुःख चाहे किसी भी माध्यम सेे उनके जीवन में प्रवेश करे, दुःख के प्रवेश के बाद उसका फल मनुष्य या अन्य प्राणी को शारीरिक, मानसिक या आर्थिक रूप से मिलने वाली पीड़ा के रूप् में भोगना ही होता है। यह दुःख अल्पकालीन भी हो सकता है या दीर्घकालीन भी।
दुःख में प्राणी का मन एवं मस्तिष्क नकारात्मक विचारों से भर जाता है और उसकी मनः स्थिति सकारात्मक सोच से दूर हो जाती है। इसके चलते उसके जीवन में अशुभ कर्मों का प्रवेश प्रारम्भ हो जाता है और इन्हीं अशुभ कर्मों का फल वह जीवन के आगामी समय या अगले जन्म में भी भोगता है।
अशुभ कर्मों का प्रवेश चाहे संत या श्रावक के जीवन में हुआ हो या अमीर, गरीब, सुंदर या कुरूप व्यक्ति के जीवन में सभी को इनका फल भोगना होता है, इसलिए आवश्यक है कि हम धर्म के अनुरूप अपने जीवन में आगे बढें़ और अशुभ कर्मों से बचते हुए विपरीत समय को भी आनंददायी बनाएं।
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