आचार्य श्री 108 प्रसन्न सागर जी महामुनिराज सम्मेद शिखरजी के स्वर्णकूट में विराजमान हैं । आपने अपनी मौन वाणी में कहा कि –
“लोगों की बात का तब फर्क पड़ता है.. जब आपको किसी बात से कोई फर्क नहीं पड़ता..! इसलिए सुखी से जीवन जीना है तो अजनबी बनकर जीना शुरू कर दो । मैं देख रहा हूँ आज संसार में सभी जान पहचान बढ़ाने में लगे हैं । हमें जितना अधिक लोग जानते हैं, हम अपने आप को उतना ही महान मानते हैं, और कहते है आई एम सम थिंग । मैं कहता हूँ – नथिंग । —
हमें जितना अधिक लोग जानते हैं, हम अपने आपको उतना ही सेफ समझते हैं और अपने अहंकार को पुष्ट करते हैं । परन्तु जो जाने पहचाने से लगते हैं, वे असलियत में अजनबी ही होते हैं । क्योंकि जो पहचान है — वह नाम, पता, व्यापार, परिवार, कद पद पैसे आदि की बाहरी चीजों की दुनिया से होती है । हम भी उसी को अपनी पहचान समझते हैं ।
यदि हम एक दूसरे को जानते पहचानते होते, तो हर आदमी अपने आप को अकेला महसूस नहीं करता । आज आदमी सबके साथ होकर भी अकेलेपन का जीवन जी रहा है । यह जान पहचान रिश्ते नाते सब बाहरी आकर्षण के केन्द्र है । सत्य यही है। जैसे- विशाल समन्दर में अथाह जल राशि होने के बाद भी वह एक की प्यास नहीं बुझा पाता ।
इस विरोधाभास को कैसे समझायें-? और इस समस्या से कैसे बाहर आयें ? इससे बाहर आने के लिये खुद को, खुद की सतही में जाना पड़ेगा, और अपने भीतर डूबना पड़ेगा। यहाँ प्रकृति की हर एक चीज अकेली है । वस्तुओं का स्वभाव भी यही है, कि हर एक इन्सान अपने लिये जीता है और अपने ढंग से जीता है। बात इतनी सी है कि जन्म और मृत्यु ये दो तट है, जिनके बीच आदमी नाटकीय, कौतूहल की जिन्दगी जी रहा है ।
दीया का तेल खत्म, जीवन का खेल खत्म
यदि जीवन को समझना है तो समग्रता और इमानदारी से जीयें, बेहोशी, मूर्च्छा, तन्द्रा का जीवन जीना बन्द करे। जिस दिन आदमी समग्रता से जीना शुरू कर देगा और बेहोशी से जीना बन्द कर देगा, तो उसी दिन से उसका खुद से परिचय हो जायेगा, फिर उसे दूसरे लोग जाने या ना जाने, इससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
जब हम खुद से जुड़ जाते हैं तब बोध होता है कि हमें दसरे कोई भी इन्सान जान ही नहीं सकते, ना हम आपको जान सकते। एक दूसरे के साथ होना ये तो ऐसा ही है जैसे — नदी नाव संयोग नाव पानी में रहे तो पार कर देगी और पानी नाव में आ जाये तो नाव डूबो देगी । आपको विचार करना है कि आपकी नाव पानी में या पानी नाव में..???
– 04 जनवरी, अंतर्मना आचार्य श्री १०८ प्रसन्न सागर जी
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