ग्रन्थमाला

आओ जानें रत्नकरण्ड श्रावकाचार और आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी के बारे में

 

ग्रंथ माला प्रत्येक गुरुवार shreephaljainnews पर आप पढ़िए

रत्नकरण्ड श्रावकाचार एक प्रमुख जैन ग्रन्थ हैं । जिसके रचयिता आचार्य श्री समन्तभद्र हैं । इस ग्रंथ में जैन श्रावक की चर्या का विस्तार से वर्णन है। आचार्य श्री समन्तभद्र ने जैन श्रावक कैसा होना चाहिए, इसके बारे में विस्तार से बताया है ।

इस ग्रंथ में 150 श्लोक संस्कृत भाषा में हैं जिसमें मुख्य रूप से सम्यगदर्शन, सम्यज्ञान, सम्यग्चारित्र, पांच अणुव्रत, तीन गुण व्रत, चार शिक्षा व्रत, संल्लेखना और श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन सात अधिकार में किया गया है । इस ग्रंथ पर आचार्य प्रभाचंद्र ने संस्कृत में टीका भी लिखी है । इसके अलावा कई स्थानों पर हिन्दी टीका और प्रश्नोत्तरी भी लिखी हुई मिलती है ।

महान योगी थे आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी

आचार्य श्री समन्तभद्रस्वामी रत्नकरण्डकश्रावकाचार ग्रन्थ के रचियता हैं । आप बहुत प्रतिभाशाली, योगी, त्यागी, तपस्वी एवं तत्त्वज्ञानी थे । आपको ‘स्वामी’ पद से विशेष तौर पर विभूषित किया गया है ।

आचार्य श्री समन्तभद्रस्वामी का जीवनकाल
आचार्य जी का जन्म कब हुआ, इसका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है । हालांकि इतिहासकार स्वर्गीय पंडित जुगलकिशोर जी मुख्तार ने अपने विस्तृत लेखों में अनेक प्रमाण देकर यह स्पष्ट किया है कि स्वामी समन्तभद्र तत्त्वार्थ सूत्र के दाता आचार्य उमास्वामी के पश्चात् एवं पूज्यपाद स्वामी के पूर्व हुए हैं।

अतः यह माना जाता है कि स्वामी समन्तभद्र विक्रम संवत की दूसरी-तीसरी शताब्दी के महान विद्वान थे । इस बात का भी कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं हैं कि आपका जन्म कहां हुआ था, लेकिन माना जाता है कि स्वामी समन्तभद्र का जन्म दक्षिण भारत के फणिमण्डल देश के उरगपुर नगर में हुआ था। यह कावेरी नदी के तट पर एक प्रसिद्ध नगर था और इसे पुरानी त्रिचनापोली के नाम से जानते हैं ।

श्रवणबेलगोल के शिलालेखों में उल्लेख

आपकी दीक्षा का स्थान कांची या उसके आस-पास कोई गांव होना चाहिए । आप कांची के दिगम्बर साधु थे लेकिन आपके दीक्षा गुरु का नाम पता नहीं है । आप मूल्संघ के प्रधान आचार्य थे । श्रवणबेलगोल के कुछ शिलालेखों से इतना ही पता चलता है कि आप श्री भद्रबाहु श्रुतकेवली, उनके शिष्य चन्द्रगुप्तमुनि के वंशज पद्मनन्दि अपर नाम कोन्डकुन्द मुनिराज और उनके वंशज उमास्वाति की वंश परम्परा में हुए थे।

स्वामी समन्तभद्र एवं भस्मक रोग

जब ‘मणुवकहल्ली’ ग्राम में मुनि जीवन व्यतीत कर रहे थे, उस समय आपको ‘भस्मक’ नाम का रोग हो गया था । मुनिचर्या में इस रोग का शमन होना असंभव जानकर आप अपने गुरु के पास पहुंचे । तब गुरु ने कहा कि – ”जिस वेष में रहकर रोगशमन के योग्य भोजन प्राप्त हो, वहां जाकर उसी वेष को धारण कर लो ।”

गुरु की आज्ञा लेकर आपने दिगम्बर वेष का त्याग किया । आप वहां से कांची पहुंचे और वहां के राजा के पास जाकर शिवभोग की विशाल अन्न राशि को शिवपिण्ड को खिला सकने की बात कही ।

मन्दिर के किवाड़ बन्द करके वे स्वयं विशाल अन्नराशि को खाने लगे और लोगों को बता देते थे कि शिवजी ने भोग को ग्रहण कर लिया है। शिव भोग से उनकी व्याधि धीरे-धीरे ठीक होने लगी और भोजन बचने लगा । अन्त में, गुप्तचरों से पता लगा कि ये शिवभक्त नहीं हैं । इससे राजा बहुत क्रोधित हुआ । तब उन्होंने अपना परिचय दिया ।

राजा ने शिवमूर्ति को नमस्कार करने का आग्रह किया । समन्तभद्र कवि थे। उन्होंने चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन शुरू किया । जब वे आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभु का स्तवन कर रहे थे, तब चन्द्रप्रभु भगवान की मूर्ति प्रकट हो गई ,स्तवन पूर्ण हुआ । यह स्तवन स्वयंभूस्तोत्र के नाम से प्रसिद्ध है ।

उत्तम गुणों के स्वामी स्वामी समन्तभद्र

शुभचन्द्राचार्य ने स्वामी समन्तभद्र को ‘भारत भूषण’ लिखा है । स्वामी समन्तभद्र बहुत ही उत्तमोत्तम गुणों के स्वामी थे ।

यशोधर चरित के दर्ता महाकवि वादिराज सूरि ने स्वामी समन्तभद्र को उत्कृष्ट काव्य माणिक्यों का रोहण (पर्वत) बताया है । अलंकार चिन्तामणि में अजितसेनाचार्य ने आपको ‘कविकुंजर’ ‘मुनिवंद्य’ और ‘निजानन्द’ लिखा है ।

वरांगचरित्र में श्री वर्धमान सूरि ने आपको महाकवीश्वर और सुतर्कशास्त्रामृत का सागर बताया है । ब्रह्मअजित ने हनुम्च्चरित्र में आपको भव्यरूप कुमुदों को प्रफुल्लित करने वाला चन्द्रमा लिखा है तथा साथ में यह भी प्रकट किया है कि वे कुवादियों की वादरूपी खाज (खुजली) को मिटाने के लिए अद्वितीय महौषधि थे । इसके अलावा भी श्रवणबेलगोल के शिलालेखों में आपको ‘वादीभवज्रांकुशसूक्तिजाल स्फुटरत्नदीप’ वादिसिंह, अनेकान्त जयपताका आदि अनेक विशेषणों से स्मरण किया गया है ।

‘हिस्ट्री ऑफ कन्नडीज लिट्रेचर’ के लेखक मिस्टर एडवर्ड पी.राईस ने समन्तभद्र को तेजपूर्ण प्रभावशाली लेखक लिखा है और बताया है कि वे सारे भारतवर्ष में जैनधर्म का प्रचार करनेवाले महान् प्रचारक थे ।

स्वामी समन्तभद्र जी ने रचे हैं कई ग्रंथ
स्वामी समन्तभद्र द्वारा विरचित निम्नलिखित ग्रंथ उपलब्ध हैं –
1. स्तुतिविद्या (जिनशतक), 2. युक्त्यनुशासन, 3. स्वयम्भूस्तोत्र, 4. देवागम (आप्तमीमांसा) स्तोत्र 5. रत्नकरण्डकश्रावकाचार 6. स्वयंभूस्तोत्र, देवागम और युक्त्यनुशासन आपके प्रमुख स्तुति ग्रन्थ हैं ।
इन स्तुतियों में उन्होंने जैनागम का सार एवं तत्त्वज्ञान को कूट-कूट कर भर दिया है । देवागम स्तोत्र में सिर्फ आपने 114 श्लोक लिखे हैं । इस स्तोत्र पर अकलंकदेव ने अष्टशती नामक 800 श्लोक प्रमाण वृत्ति लिखी जो बहुत ही गूढ़ सूत्रों में है । आपके द्वारा रचित निम्न ग्रन्थों के भी उल्लेख मिलते हैं जो उपलब्ध नहीं हो पाये हैं
1. जीवसिद्धि 2. तत्त्वानुशासन 3. प्राकृत व्याकरण 4. प्रमाणपदार्थ 5. कर्मप्राभृत टीका 6. गन्धहस्तिमहाभाष्य ।

आप को यह कंटेंट कैसा लगा अपनी प्रतिक्रिया जरूर दे।
+1
27
+1
5
+1
2
× श्रीफल ग्रुप से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें