अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर महाराज की कलम से श्रीफल जिन पाठशाला अलग-अलग विषयों पर पढ़ें प्रत्येक शनिवार को सिर्फ http://www.shreephaljainnews.com पर।
तीर्थंकर की दिव्य ध्वनि का अंश हैं शास्त्र
मैं शास्त्र हूं। मैं तीर्थंकर भगवान की दिव्य ध्वनि का अंश हूं। इस दिव्य ध्वनि को सबसे पहले गणधर ने समझा, उसके बाद क्रम से अनेक आचार्यों के स्मरण में रहने लगी। सब मुझे स्मरण में रखकर अपनी आत्मा का कल्याण करने लगे। पाप कर्म को काटने लगे। पुण्य का संचय करने लगे।
फिर धीरे-धीरे काल के प्रभाव से जब मैं आचार्यों की स्मरण शक्ति से विलुप्त होने लगी, तब अनेक आचार्य मुझे लिखकर सुरक्षित करने लगे। मैं दिव्य ध्वनि का अंश, जब लिपिबद्ध हो गया तो मुझे साधु, श्रावक शास्त्र कहने लग गए। मुझे आज श्रावक जिनवाणी, आगम आदि कई नाम से जानते हैं।
मुझे पढ़कर, चिंतन कर सब ज्ञानी, ध्यानी बनते हैं। बच्चों, तुम्हें पता है, जो मुझे निर्मल भाव, संयम और त्याग के साथ पढ़ता है, विनय करता है, आदर करता है, उसके सारे दुख और पाप कर्म दूर कर उसे मैं भगवान बना देता हूं।
मुझे पढ़ने से जैन धर्म के तीर्थंकरों और उनके समय हुए महापुरुषों के साथ उस समय घटी घटनाओं का वर्णन, कर्म, जीवन को कैसे जीएं और आत्मा का क्या स्वरूप हो, इन सब बातों की जानकारी मिलती है। इससे तुम्हें धर्म, त्याग करने का सम्बल मिलता है। मुझे सरलता से समझने के लिए आचार्यों ने मुझे चार भागों में बांट दिया है।
पहला प्रथमानुयोग, दूसरा करणानुयोग, तीसरा चरणानुयोग, चौथा द्रव्यानुयोग। मुझे मूल रूप से प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत भाषा में लिखा गया है। समय के अनुसार मेरा हिंदी अनुवाद भी होने लगा है। मैं हूं शास्त्र। तुम मेरे साथ रहोगे ना? तुम मुझे बताओ, मुझसे मिलकर कैसा लगा?
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श्रीफल जिन पाठशाला : पहली कड़ी – णमोकार मंत्र
श्रीफल जिन पाठशाला -2 : दूसरी कड़ी- जानिए तीर्थंकरों के बारे में