समाचार

सत्य को स्वयं ही देखना, जानना और जीना पड़ता है आचार्य प्रसन्न सागर जी महाराज

सम्मेदशिखर जी@राजकुमार अजमेर। बुद्धि ,विवेक,सोच और सत्य का कुछ ऐसा अंदाज रखो कि कोई अंदाज भी ना लगा पाये। तेल की एक बूंद वैसा ही एक सत्य है, जिसे लाखों बूंद ठंडा पानी कभी मिटा नहीं सकतीं। सत्य जीवन्त और शास्वत है, जिसे किसी पर ना थोपा जा सकता है, ना सत्य का आवरण ओढ़ा जा सकता है। यह बात अंतर्मना आचार्य श्री 108 प्रसन्न सागर जी महाराज ने स्वर्णभद्र टोंक के कूट पर चल रही साधना में कहे। उन्होंने कहा कि संत, फकीर, गुरु, सदगुरु और ग्रंथ, सत्य को ना सिखा सकते हैं, ना बता सकते हैं। वे सत्य का बोध करा सकते हैं, सच की राह दिखा सकते हैं, जहां चलना और देखना तो स्वयं को ही पड़ेगा। सत्य का नजारा चारों तरफ मौजूद है, सिर्फ आंखों से असत्य का चश्मा निकालकर देखने की आवश्यकता है और मन के कोलाहल को शांत होने की जरूरत है।मन सत्य को ही स्वीकार करता है लेकिन असत्य का कोलाहल उस सत्य को स्वीकार करने नहीं देता। उन्होंने कहा कि गुरु, सतगुरु प्रेरणा दे सकते हैं, प्रेरित कर सकते हैं लेकिन परेशान नहीं कर सकते हैं। वे सत्य को सिखा नहीं सकते हैं। गुरु और ग्रंथ, दर्पण की तरह है। उसमें आप अपना चेहरा और चरित्र देख तो सकते हैं परंतु ठीक तो स्वयं को ही करना पड़ेगा। दर्पण और डॉक्टर एक जैसा काम करते हैं। दर्पण प्रतिबिंब दिखाता है और डॉक्टर रोग को बताता है। दर्पण चेहरे से दाग को ठीक नहीं कर सकता और डॉक्टर रोग को नहीं भगा सकता। इसलिए सत्य को स्वयं ही देखना, जानना और जीना पड़ता है।

आप को यह कंटेंट कैसा लगा अपनी प्रतिक्रिया जरूर दे।
+1
0
+1
0
+1
0
× श्रीफल ग्रुप से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें