न्यूज़ सौजन्य- राजेश दद्दू
इंदौर। लोभ और मोह यह दो विषैले सर्प के समान हैं। ना चाह कर भी जीव इनसे बच नहीं पा रहा है। मोह, लोभ की प्रवृत्ति से क्षोभ होता है और इससे ग्रसित व्यक्ति जीवन के अर्थ को भूलकर पूरा जीवन अर्थ (धन-संपत्ति) के संग्रह में लगा रहा है। यह जानते हुए भी कि आयु क्षय हो रही है, उसकी दृष्टि आयु पर नहीं, धन पर रहती है। उसके पास पर्याप्त संपत्ति होने के बाद भी वह उसकी वृद्धि के लिए दिन-रात संग्रह के लिए लगा रहता है। यह बात शुक्रवार को मुनि श्री आदित्य सागर जी महाराज ने समोसरण मंदिर, कंचन बाग में चातुर्मासिक प्रवचन सभा में व्यक्त किए। मुनिश्री ने कहा कि लोभ के लालच में छल-कपट पूर्वक बेईमानी से कमाए गए धन से, पानी का धन पानी में नाक कटी बेईमानी, में कहावत चरितार्थ होती है। उन्होंने कहा कि अर्थ पुरुषार्थ करो लेकिन उतना ही जितनी आवश्यकता है। धन सबके पास है, उसमें आसक्ति मत रखो। धन मेरे चेतन से भिन्न है, यह भाव सबके पास नहीं है। इसलिए लोभ, मोह का त्याग कर निर्लोभी बनो, इज्जत कमाओ। धन अपने आप आ जाएगा।