हमारी क्या कामना है नोटों की गड्डी या धर्म?
रावतभाटा (चितौड़गढ़)। श्रमण मुनि श्री शुद्धसागर जी महाराज व क्षुल्लक श्री अकंप सागर जी महाराज का भव्य मंगल चातुर्मास धर्मनगरी रावतभाटा चितौड़गढ़ में चल रहा है। मुनि श्री ने सभा को संबोधित करते हुए कहा है कि हमारा मनुष्य भव चौरासी लाख योनियों में सबसे उत्कृष्ट है, लेकिन इसकी आयु बहुत ही अल्प है। इस अल्प समय में जो समझ जाए वह अपने भवों का नाश कर सकता है। हमने अनेक भवो में जो दुख, कष्ट, वेदना सही है, यदि वो हमारे सामने आ जाए तो हम कभी पाप नहीं करे। इस मनुष्य भव में आकर हम फूल गए हैं और फूलकर भूल रहे हैं।
मुनि श्री ने कहा कि मनुष्य भव ही एक ऐसा भव होता है जिसमें हम यदि अपना लक्ष्य बना लें तो मोक्ष या ऊर्ध्व गति को प्राप्त कर सकते हैं। यदि मनुष्य भव छूट जाए तो फ़िर ऐसा कोई भव नहीं है जिसमें हम अपना कल्याण कर सकें। अर्थात हमें अपने आप को पहचानने की जरूरत ह । जब हम संसार में आए थे, तब भी कुछ नहीं लाए थे और जब इस संसार से जाएंगे तब भी कुछ नहीं ले जाएंगे। फिर भी हमारे मोहनीय कर्म का उदय ऐसा है कि हम इसे स्वीकारने को तैयार नहीं हैं।
मुनि श्री ने श्रोताओं से कहा कि वस्तु व्यवस्था को स्वीकार करने से ही सम्यक दर्शन संभव होगा। हम यह जानते हैं कि हम साथ ना कुछ लाए थे, ना ले जाएंगे फिर भी हमारा कर्म का उदय इतना हावी हो रहा है कि हम दूसरों को देखकर हर कार्य को कर रहे हैं। मुनि श्री कहते हैं कि अपना कल्याण करने के लिए हमें अपनी परिणीती, स्थान व सोच को बदलना होगा। इसे बदले बिना तीन काल में भी कल्याण संभव नहीं है। हम भगवान की मूर्ति के आगे हाथ जोड़कर कहते हैं कि हे भगवान ,मेरा कल्याण हो जाए तो उससे कल्याण होना वाला नहीं है। लेकिन हम निज भगवन से यदि कहें तो हमारा कल्याण अवश्य ही हो जाएगा। मनुष्य संसार से मात्र अपने कर्मों को ही लेकर जाता है। फिर भी विचारा नोटों की गड्डी के पीछे लगा है और इसके लिए अशुभ कर्म करता है।
मुनि श्री ने अंत में कहा कि मनुष्य भव कमाई की दुकान है। जैसा इस भव में कमाया जा सकता है, अन्य किसी भव में नहीं कमाया जा सकता है। हम यह हमारा निर्णय है कि हमारी क्या कामना है नोटों की गड्डी या धर्म? जो कर्म हम कर रहे हैं उसे भोगना ही पड़ेगा। हम लोगों से तो झूठ बोल सकते हैं मगर कर्म से नहीं बोल सकते हैं।