पर्यावरण शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है – ‘परि’ + ‘आवरण’। ‘परि’ का अर्थ है- चारों ओर और ‘आवरण’ का अर्थ है-घेरा। वह घेरा जो हमारे चारों ओर व्याप्त है और जिसमें हम जन्मते, बढ़ते व जीवनयापन करते हैं, पर्यावरण कहलाता है।
पूरी दुनिया में 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। इस दिन को मनाने का लक्ष्य लोगों को पर्यावरण संरक्षण और उसकी सुरक्षा के प्रति जागरुक करना होता है। इस दिन को मनाने की घोषणा साल 1972 में संयुक्त राष्ट्र ने की थी।
आज प्राकृतिक संसाधनों का दोहन जिस तरह से और जिस स्तर पर किया जा रहा है, उससे पर्यावरण को निरंतर खतरा बढ़ता जा रहा है।
आज के समय में जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, तापीय प्रदूषण, विकरणीय प्रदूषण, औद्योगिक प्रदूषण, समुद्रीय प्रदूषण, रेडियोधर्मी प्रदूषण, नगरीय प्रदूषण, प्रदूषित नदियां, जलवायु बदलाव, और ग्लोबल वार्मिंग का खतरा लगातार बढ़ता जा रहा है।
प्लास्टिक प्रदूषण से धरती को दूर रखना रखा आज चुनौती बन चुका है।
प्राकृतिक ऑक्सीजन यानी पेड़ लगाएं :
आज कोविड 19 के दौर में जगह-जगह ऑक्सीजन प्लांट लगाने की जरूरत इसलिए महसूस हो रही है क्योंकि हमने प्राकृतिक ऑक्सीजन आपूर्तिकर्ताओं यानी पेड़ों की अहमियत को सिरे से नकार दिया है। अब जब मशीनों से ऑक्सीजन स्तर जांचने की जरूरत पड़ रही है तो जरूरी है कि हम गंभीर हो जाएं और अपने हिस्से की ऑक्सीजन की व्यवस्था सिलेंडर से नहीं बल्कि कुदरत से करें । पेड़ लगाएं, उनकी देखभाल करें, प्रकृति के साथ अपनी जिम्मेदारी निभाएं। पेड़ हमारी अच्छी सेहत के लिए बहुत ज़रूरी हैं. इसीलिए, डॉक्टर पेड़ों और हरियाली के बीच वक़्त बिताने की सलाह देते हैं. इनके बीच समय बिताने से औसत आयु बढ़ती है. हम बीमार कम पड़ते हैं. तनाव भी कम होता है। अमरीका के बाल्टीमोर राजय में पेड़ों की संख्या बढ़ने से अपराधों में कमी आती देखी गई है।
वन हैं तो हम हैं : एक सर्वे में आए आंकड़ों के मुताबिक रोजाना 27,000 पेड़ कटते हैं जिसके बाद दुनिया मेंं टॉयलेट पेपर की आपूर्ति की जाती है। एक अनुमान के अनुसार सन् 1990 के दशक में प्रति मिनट लगभग 70 एकड़ वनों का विनाश हो रहा था तथा पिछले तीन दशकों में विश्व के लगभग 20 प्रतिशत वनों का विनाश हमें चिंतातुर बनाए हुए है। वनों के विनाश से एक ओर कई जीव-जातियां न केवल विलुप्त हो गईं और हो रही हैं, उससे कई तरह की समस्याएं भी सामने आने लगी हैं। सुदूर संवेदी उपग्रहों से लिए गए चित्रों से ज्ञात हुआ है कि भारत में प्रतिवर्ष 13 लाख हेक्टेयर भूमि से वन नष्ट हो रहे हैं। वन विभाग की ओर से प्रकाशित वार्षिक रिपोर्ट की अपेक्षा यह दर आठ गुना अधिक है।
जीवनदायी हैं वृक्ष :
प्राणवायु ही नहीं जीवन के आधार हैं पेड़, पेड़ों से निकलने वाली ऑक्सीजन मानव जीवन को बचाती है । नीम, बरगद, तुलसी तथा बांस की प्रजातियां सबसे ज्यादा ऑक्सीजन देने वाले हैं। पेड़, पौधे पेड़ों की जड़ें मिट्टी के छरण को रोकती हैं। जिससे वातावरण में धूल कम बनती है । पेड़ भूजल स्तर बढ़ाने में सबसे ज्यादा मदद करते हैं, बड़, शीशम, पीपल, आम आदि इसमें बेहद सहायक हैं। पेड़ वायुमंडल के तापक्रम को कम करते हैं । पेड़ों से घिरी जगह पर दूसरी जगहों की अपेक्षा तीन से चार डिग्री तापमान कम होता है । यह अमूल्य संपदा हमें ग्लोबलवार्मिंग, सूखा ,बाढ़ , भूकंप जैसी कई प्राकृतिक आपदाओं से बचाती है। इमली, बेल, जामुन, बेर,गूलर, खेर सहित शरीफा, शहतूत जैसे बहुत योगी वृक्ष आज विलुप्ति की कगार पर हैं। अर्जुन, अशोक, शीशम, कदंब के पेड़ों के अलावा पीपल ,बरगद जैसे भरपूर ऑक्सीजन देने वाले पर्यावरण हितैषी पेड़ों की संख्या भी कम होती जा रही है।
पेड़ हमारे लिए इतने काम के हैं, फिर भी हम इन्हें इतनी बेरहमी से काटते रहते हैं, जैसे कि इनकी इस धरती के लिए कोई उपयोगिता ही नहीं. इंसान ये सोचता है कि इनके बग़ैर हमारा काम चल सकता है। हम ये सोचते हैं कि आर्थिक लाभ के लिए पेड़ों की क़ुर्बानी दे सकते हैं।
मनुष्य अपनी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए वनों को काटता जा रहा है। वनों के कटाव से कृषि क्षेत्र की मिट्टी ढीली हो जाती है। मूसलाधार वर्षा बाढ़ का सबब बनती है और भूस्खलन भी होता है। वनों के कटते जाने से वर्षा भी समय पर नहीं होती। अतः इनके कटाव पर प्रतिबंध होना ही चाहिए। इसका एक उपाय और भी है कि वनों के काटने से पहले नए वनों की स्थापना की जाए। खाली स्थानों पर वृक्ष लगाए जाएं और जन सहयोग के आधार पर समय-समय पर वन महोत्सव मनाए जाएं।
इस ग्रह को पेड़ जो सेवाएं देते हैं, उनकी फ़ेहरिस्त बहुत लंबी है। वो इंसानों और दूसरे जानवरों के छोड़े हुए कार्बन को सोखते हैं. ज़मीन पर मिट्टी की परत को बनाए रखने का काम करते हैं. पानी के चक्र के नियमितीकरण में भी इनका अहम योगदान है. इसके साथ पेड़ प्राकृतिक और इंसान के खान-पान के सिस्टम को चलाते हैं और न जाने कितनी प्रजातियों को भोजन प्रदान करते हैं. इसके अलावा ये दुनिया के अनगिनत जीवों को आसरा देते हैं।
कोविड के दौर में हम सबने देखा लोग ऑक्सीजन के अभाव में अपनी जान गवा रहे हैं और ऑक्सीजन के मुह मांगे दाम दे रहे हैं शायद लोगो को ऑक्सीजन की अहमियत का पता चल गया होगा क्योंकि वनों से ही हमे प्राणवायु मिलती है जिससे हमारा जीवन सम्भव हो पाता है तो आओ हम सभी मिलकर अपनी प्राकृतिक आक्सीजन का संरक्षण करें।
बंद कमरे में सांस घुटी जाती है।
खिड़की खोलूं तो जहरीली हवा आती है।।
पिछले तीस-पैंतीस सालों का यदि जायजा लें तो खुलासा होता है कि छोटे कस्बों-शहरों से महानगरों के बीच की दूरी आये दिन बढ़ते कंक्रीट के जंगलों के चलते लगातार कम होती जा रही है क्योंकि जहाँ राजमार्ग-सड़कों के दोनों ओर लहलहाती खेती नजर आती थी, जंगल दिखाई देते थे, वहाँ अब गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ और औद्योगिक संस्थानों की जहरीला धुँआ छोड़ती चिमनियाँ नजर आती हैं, हरे-भरे जंगल सूखे मैदान और पहाड़ियाँ सूखी-नंगी दिखाई देती हैं।
काटे गए हरे पेड़ों के लट्ठो से लदे ट्रक राजमार्गों पर बेखौफ गुजरते दिखाई देते हैं। ऐसी हालत में वृक्षों, वनों, वन्य जीवों के जीवन और पर्यावरण की रक्षा की आशा कैसे की जा सकती है।
गौरतलब है कि पृथ्वी को उजड़ने के कगार पर पहुँचाने में जो कारक उत्तरदायी हैं, उन पर कभी सोचने का प्रयास ही नहीं किया गया। वर्तमान में पड़ रही भीषण गर्मी और मौसम में आ रहे बदलाव इस बात का पर्याप्त संकेत दे रहे हैं कि यदि हमने पर्यावरण रक्षा की गम्भीर कोशिशें नहीं कीं तो आने वाले दिनों में स्थिति इतनी भयावह हो जाएगी जिसे सम्भालना बहुत मुश्किल हो जाएगा। औद्योगीकरण और नगरीकरण की प्रक्रिया में घने वन-उपवन तो उजाड़े ही गए, इससे पर्यावरण सन्तुलन भी काफी हद तक बिगड़ा।
अभी भी वक्त है, हम चेतें अन्यथा प्रकृति कब तक अनावृत्त होकर हमारे अनाचार सहती रहेंगी। जिस प्रलय का इंतजार हम कर रहे हैं, वह एक दिन इतने चुपके से आयेगी कि हमें सोचने का मौका भी नहीं मिलेगा। जरुरत है कि हम प्रकृति व पर्यावरण को मात्र पाठ्यक्रमों व कार्यक्रमों की बजाय अपने दैनिंदिन व्यवहार का हिस्सा बनायें। आज पर्यावरण के प्रति लोगों को सचेत करने के लिए सामूहिक जनभागीदारी द्वारा भी तमाम कदम उठाये जा रहे हैं। जानकर कहते हैं कि कोरोना जैसी विश्व व्यापी महामारी पर्यावरण, प्रकृति से छेड़छाड़ का ही नतीजा है।
इस तरह ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ को हम तभी सार्थकता दे सकेंगे जब विश्व स्तर पर आम जनता भी इसके निर्धारित उद्देश्यों को समझकर पर्यावरण संतुलन-संरक्षण करने की चेतना को अपने भीतर जागृत कर सके।