जयपुर/ नोएडा। आजकल दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि श्रावक अपने मिथ्यात्व का पोषण करने में लगे हैं और अपने कर्तव्यों से दूर होते जा रहे हैं! श्रावकों के लिए संतों को भोजन करवाना पुण्य का कार्य है। जैन संतों के लिए तो भोजन सिर्फ जीवन जीने का माध्यम है। पर अब तो ऐसा लगने लगा है कि समाज के लोगों या समाज के अध्यक्षों की मनोदशा ऐसी हो गई है कि उनका मन एवं उपक्रम मंदिर अथवा साधु-सेवा के लिए नहीं, बल्कि अपने मान सम्मान की खातिर है और वे ऐसी ही चाह भी रखते हैं। क्या आपने कभी सुना है कि किसी साधु के संभावित आगमन के लिए मंदिर के बोर्ड पर यह लिख दिया जाए कि कौन- कौन चौका लगाएगा? अथवा किस तारीख को महाराज के आने की सम्भावना है? संभावना तो तब बनती है जब संत को आने पर उन्हें श्रीफल भेंट किया जाए। स्वाभाविक सा प्रश्न है कि क्या आपने अपना व्यापार शुरू करने के पहले यह तय किया था कि कौन- कौन मेरे यहां से सामान खरीदेगा? अथवा फलां तारीख को दुकान खोलने की संभावना है?
दिगम्बर संतों व साध्वियों के आहार नियम इतने कड़े होते हैं कि उन्हें आसानी से पूरा ही नहीं किया जा सकता। तो फिर क्या समाज का एक जिम्मेदार श्रावक यह कहेगा कि पहले चौके लगाने वाले अपना नाम दें तभी साधु को निमंत्रण देने के लिए जाएंगे? कोई यह कहे कि यह तो साधु का मंदिर है, उन्हें निमंत्रण की क्या आवश्यकता है? इस प्रकार की बातें करना एक जिम्मेदार व्यक्ति को उचित है? ऐसा कहने वाले पहले यह तो समझ लें कि उनकी कमेटी में 10-15 लोग तो होंगे ही, पहले वही चौके प्रारम्भ कर दें तो शायद अन्य लोगों को भी प्रेरणा मिल जाए।
सीधी सी बात है कि जहां की समाज लगातार 7 साल से चातुर्मास करवा रही हो, समाज के 400-500 घर हों, क्या उस समाज में कोई चौका नहीं लगेगा यह सम्भव नहीं हो सकता है? शहर में किसी एक कॉलोनी में साधु विराजमान हों और दूसरी कॉलोनी के मंदिर से उन्हें आने का निमंत्रण नहीं मिले तो इसके पीछे कोई ना कोई राज तो जरूर होगा। ऐसा लगता है कि लोग कोई बात पकड़ कर बैठ गए हैं या समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले कमजोर हो गए हैं। तभी तो अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए कोई ना कोई बहाना बना रहे हैं? साधु के पास सूचना दी जा रही है कि एक दिन,दो दिन,तीन…में श्रीफल चढ़ाएंगे तो सोचो कि समाज की क्या स्थिति होगी।
सुझाव है कि समाज का प्रतिनिधित्व वही करे या समाज के लोग ऐसे व्यक्ति को पदाधिकारी चुने जो यह संकल्प करे कि जब भी कोई साधु आएगा, पहले मैं उनके आहार,विहार,निहार की व्यवस्था करूंगा। अगर वह ऐसा संकल्प लेता है तो यह स्थिति नहीं आएगी कि बोर्ड पर लिखना पड़ेगा कि चौका कौन लगाएगा। कमेटी में 15-20 लोग होते ही हैं। जो चौका ही नहीं लगा सकता, उसे समाज का कर्णधार नहीं बनाना चाहिए। अगर आप यह सोच रहें हैं कि यह घटना कहां की है तो तो जरूर आपको यह बताएंगे। समाचार अगली कड़ी में…। तब तक जुड़े रहिएगा। और नीचे दी गई लिंक पर जाकर ग्रुप से जुड़ें।
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