स्वाध्याय-11
पांच महाव्रत, पांच समिति, पञ्चेन्द्रिय निरोध, छ: (षट्) आवश्यक, शेष सात गुण 28 मूलगुणों है । इन नियमों का पालन मुनि दीक्षा और आर्यिका दीक्षा लेने वाले दोनों पालन करते हैं। आर्यिका माताजी बैठे-बैठे आहार ग्रहण करती हैं,अतिआवश्यक होने पर स्नान करती है और एक साड़ी का उपयोग करती हैं। बाकी सभी उन्हीं नियमों का पालन करती हैं, जो एक मुनि को पालन करना होता है।
महाव्रत
हिंसादि पांचों पापों का मन, वचन, काय एवं कृत, कारित, अनुमोदना से त्याग करना महापुरुषों ने महाव्रत कहा है।
1. अहिंसा महाव्रत
छ: काय के जीवों को मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से पीड़ा नहीं पहुंचाना, सभी जीवों पर दया करना, अहिंसा महाव्रत है।
2. सत्य महाव्रत
क्रोध, लोभ, भय, हास्य के कारण असत्य वचन तथा दूसरों को संताप देने वाले सत्य वचन का भी त्याग करना, सत्य महाव्रत है।
3. अचौर्य महाव्रत
वस्तु के स्वामी की आज्ञा बिना वस्तु को ग्रहण नहीं करना, अचौर्य महाव्रत है।
4. ब्रह्मचर्य महाव्रत
जो मन, वचन, काय एवं कृत, कारित, अनुमोदना से वृद्धा, बाला, यौवन वाली स्त्री को देखकर अथवा उनकी फोटो को देखकर उनको माता, पुत्री, बहिन समझ स्त्री सम्बन्धी अनुराग को छोड़ता है, वह तीनों लोकों में पूज्य ब्रह्मचर्य महाव्रत है।
5. परिग्रह त्याग महाव्रत
अंतरंग चौदह एवं बाहरी दस प्रकार के परिग्रहों का त्याग करना तथा संयम, ज्ञान और शौच के उपकरणों में भी ममत्व नहीं रखना, परिग्रह त्याग महाव्रत है।
पांच समिति
‘सम्’ अर्थात् सम्यक् ‘इति‘ अर्थात् गति या प्रवृत्ति को समिति कहते हैं। चलने-फिरने में, बोलने-चलने में, आहार ग्रहण करने में, वस्तुओं को उठाने-रखने में और मल-मूत्र का निक्षेपण करने में यत्न पूर्वक सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति करते हुए जीवों की रक्षा करना, समिति है। यह पांच हैं ।
1. ईर्या : प्रासुक मार्ग से दिन में चार हाथ (छ: फुट) प्रमाण भूमि देखकर चलना, यह ईयर्र समिति है। भूमि देखकर चलने का अर्थ भूमि पर चलने वाले जीवों को बचाकर चलना।
2. भाषा : चुगली, निंदा, आत्म प्रशंसा आदि का परित्याग करके हित, मित और प्रिय वचन बोलना, भाषा समिति है। जैसे-कपड़ा मीटर से नापते हैं और धान्य आदि बाँट से तौलते हैं, वैसे ही नाप-तौल कर बोलना चाहिए अर्थात् हमारे वाक्य ज्यादा लम्बे न हों फिर भी अर्थ ठोस निकले।
3. एषणा समिति : 46 दोष एवं 32 अंतराय टालकर सदाचारी उच्चकुलीन श्रावक के यहाँ विधि पूर्वक निर्दाेष आहार ग्रहण करना, एषणा समिति है।
4. आदान निक्षेपण समिति : शास्त्र, कमण्डलु, पिच्छी आदि उपकरणों को देखकर-शोधकर रखना और उठाना, आदान निक्षेपण समिति है।
5. उत्सर्ग समिति : जीव रहित स्थान में मल-मूत्र आदि का त्याग करना, उत्सर्ग समिति है।
पंचेन्द्रिय निरोध
स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पांच इन्द्रियों के मनोज्ञ-अमनोज्ञ विषयों में राग-द्वेष का परित्याग करना पंचेन्द्रिय निरोध है।
1. स्पर्शन इन्द्रिय निरोध : शीत-उष्ण, कोमल-कठोर, हल्का-भारी और स्निग्ध-रूक्ष इन स्पर्शन इन्द्रिय के विषयों में राग-द्वेष नहीं करना, स्पर्शनेन्द्रिय निरोध है।
2. रसना इन्द्रिय निरोध : खट्टा, मीठा, कड़वा, कषायला और चरपरा इन रसना इन्द्रिय के विषयों में राग-द्वेष नहीं करना, रसना इन्द्रिय निरोध है।
3. घ्राण इन्द्रिय निरोध : सुगंध और दुर्गंध इन घ्राण इन्द्रिय के विषयों में राग-द्वेष नहीं करना, घ्राण इन्द्रिय निरोध है।
4. चक्षु इन्द्रिय निरोध : काला, पीला, नीला, लाल और सफेद इन चक्षु इन्द्रिय के विषयों में राग – द्वेष नहीं करना, चक्षु इन्द्रिय निरोध है।
5. श्रोत्र इन्द्रिय निरोध : मधुर स्वर, गान, वीणा आदि को सुनकर राग नहीं करना एवं कठोर निंद्य, गाली आदि के शब्द सुनकर द्वेष नहीं करना, श्रोत्र इन्द्रिय निरोध है।
आवश्यक
अवश्य करने योग्य क्रियाएं आवश्यक कहलाती हैं। साधु (मुनि) के लिए जो कियाएँ नित्य करना आवश्यक होती है उसे आवश्यक क्रिया कहते हैं ।मुनि को छ: क्रियाएँ करनी आवश्यक होती हैं, उन्हें ही छ: (षट्) आवश्यक कहते हैं।
जो कषाय, राग-द्वेष आदि के वशीभूत न हो वह अवश है। उस अवश का जो आचरण होता है, वह आवश्यक है, आवश्यक छ: ,होते हैं।
1. समता या सामायिक : राग-द्वेष आदि समस्त विकार भावों का तथा हिंसा आरम्भ आदि समस्त बहिरंग पाप कर्मो का त्याग करके जीवन-मरण, हानि-लाभ, सुख-दुःख आदि में साम्यभाव रखना समता या सामायिक है।
2. स्तुति : 24 तीर्थंकरो के गुणों का स्तवन करना स्तुति है।
3. वन्दना : चैबीस तीर्थंकरो में से किसी एक की एवं पंच परमेष्ठियों में से किसी एक की मुख्य रूप से स्तुति करना वंदना है। यह दिन में तीन बार करते हैं।
4. प्रतिक्रमण : व्रतों में लगे दोषों की आलोचना करना प्रतिक्रमण है। अथवा ‘मेरा दोष मिथ्या हो‘ ऐसा कहना प्रतिक्रमण है। ‘तस्स मिच्छा में दुक्कड‘। प्रतिक्रमण भी दिन में तीन बार करते हैं। प्रतिक्रमण सात प्रकार के होते हैं।
दैवसिक, रात्रिक, ईर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, संवत्सरिक (वार्षिक), उत्थार्मिक औतमार्थिक प्रतिक्रमण जो संल्लेखना के समय होता है।
5. प्रत्याख्यान : आगामी काल में दोष न करने की प्रतिज्ञा करना प्रत्याख्यान है। अथवा सीमित काल के लिए आहारादि का त्याग करना प्रत्याख्यान है।
6. कायोत्सर्ग : परिमित काल के लिए शरीर से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग का अर्थ होता है। शिथिलीकरण अर्थात रिलेक्सेशन। इससे शरीर की शक्ति शिथिल हो जाएगी एवं आत्मा की शक्ति सक्रिय हो जाएगी।
शेष सात गुण
1. अस्नान व्रत – स्नान करने का त्याग, साधु का शरीर धूल, पसीने से लिप्त रहता है, उसमें अनेक सूक्ष्म जीव रहते हैं, उनका घात न हो इसलिए स्नान नहीं करते हैं।
2. भूमि शयन – थकान दूर करने के लिए शयन आवश्यक है। रात्रि में एक करवट से थोड़ा शयन करने के लिए भूमि, शिला, लकड़ी के पाटे, तृण अर्थात् सूखी घास या चटाई का उपयोग करते हैं। और किसी का नहीं।
3. अचेलकत्व – वस्त्र, चर्म और पत्ते आदि से शरीर को नहीं ढकना अर्थात् नग्न रहना। दिशाएं ही जिनके अम्बर अर्थात् वस्त्र हैं, वे दिगम्बर हैं।
4. केशलोंच – दो माह से चार माह के बीच में प्रतिक्रमण सहित दिन में उपवास के साथ अपने हाथों से सिर, दाढ़ी एवं मूंछों के केशों को उखाड़ना केशलोंच है। दो माह में करना उत्कृष्ट है, चार माह में करना जघन्य है एवं दोनों के बीच में करना मध्यम है।
5. एक भुति – चैबीस घंटों में मात्र एक बार आहार करना। सूर्याेदय के 3 घड़ी के बाद (72 मिनट) एवं सूर्यास्त से 3 घड़ी पहले। सामायिक का काल छोड़कर शेष काल में 3 मुहूर्त (2 घंटे 24 मिनट) तक आहार ले सकते हैं। (मू.प्र., 500-502)
6. अदंतधावन – अडुली, नख, दातुन, छाल, मंजन, बु्रश, पेस्ट आदि से दांतों के मल का शोधन नहीं करना, इन्द्रिय संयम की रक्षा करने वाला अदंतधावन मूलगुण है।
7. स्थिति भोजन – दीवार आदि का सहारा लिए बिना खड़े होकर आहार करना। खड़े होते समय दोनों पैर के बीच 4 अर्जुल का अंतर या पीछे 4 अर्जुल एवं आगे 4 से 12 अर्जुल तक का अंतर रह सकता है। (आ.पु., 18/3)
मुनियों के 34 उत्तर गुण होते हैं। 12 तप और 22 परीषहजय।
सौजन्य– अंतर्मुखी मुनि पूज्य सागर महाराज